'शासनश्री' साध्वीश्री सोमलता जी के प्रति चारित्रात्माओं के उद्गार
श्रमण-श्रमणीयों ने ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप की आराधना कर अपनी आत्मा का कल्याण किया। स्व कल्याण के साथ पर कल्याण में भी वे निरंतर लगे रहे। अनेकों पथिकों को सन्मार्ग पर आरूढ़ होने की प्रेरणा दी। कल्पतरू सम भैक्षव शासन में प्रवर्जित होने वाला साधक आपने आपको धन्य मानता है। इस शासन में गुरु ही सर्वेसर्वा होते हैं। वह सदगुरु की शरण प्राप्त कर परमार्थ पद की ओर आगे बढ़ता है तथा जीवन की तीनों अवस्थाओं में (बचपन, यौवन, बुढ़ापा) निश्चिंतता का जीवन जीता है। उसी परमार्थ पद पर चरण न्यास करने वाली दिव्यात्मा थी- ‘शासनश्री’ साध्वी सोमलताजी।
‘‘मेरे पास वो शब्द कहां, जिसका मैं गुणगान करूं।
४१ वर्षाें से साथ आपका, किन शब्दों में बयां करूं।।’’
नंदनवन का महकता पुष्प शासनश्री साध्वी सोमलताजी के लिए क्या लिखूं? क्या कहूं? शब्द सीमित है, भाव असीम है। ४१ वर्षों के सुनहरे अनुभवों, संस्मरणों को कुछ पंक्तियों, एक पेज या एक डायरी में लिखना असंभव है। मेरा परम सौभाग्य था कि इतने वर्षों तक मुझे उनके पवित्र आभामंडल तथा सुखद सन्निधि में रहने का अवसर प्राप्त हुआ। उन्होंने मेरी ज्ञान चेतना को जगाया, विकास की राहें प्रशस्त की, मुझ पर बहुत उपकार किया जिसे अंतिम सांस तक नहीं भूल सकती। शासनश्रीजी के जीवन को स्वर्णमय बनाने वाले कुछ गुण हमेशा मेरे स्मृति पटल पर अंकित रहेगें। उन गुणों की कुछ झलकियां यहां प्रस्तुत कर रही हूं:
१. ‘समयं गोयम मा पमायए’ इस सूक्त को आत्मसात करने वाली साध्वीश्रीजी समय का क्षण-क्षण उपयोग करती। उन्होंने अप्रमत्ता का जीवन जीया तथा हम साध्वियों को भी यही प्रेरणा देती रहती।
२. उनकी वाणी में माधुर्य रस था जो प्रत्येक व्यक्ति को अपनी ओर खींच लेता था। वे हमें भी कहती कि वाणी को वीणा की तरह रखो।
३. ‘सिम्पल लिविंग हाई थिंकीग’- उनके विचार बहुत शुद्ध तथा पवित्र थे। उनके भावों में निर्मलता रहती जो उनके आचरण तथा व्यवहार में झलकती थी।
४. स्नेह, सौहार्द, गुणग्राहकता, निश्छलता आदि गुणों से सुशोभित आपका व्यक्तित्व हमारे लिए अनुकरणीय है।
५. साध्वीश्री दर्शनार्थ आने वाले हर श्रावक-श्राविका को नाम लेकर बतलाती तथा मुक्त भाव से सबको प्रेम बांटती थी। उनके आत्मीय व्यवहार से सभी भाव-विभोर हो जाते।
६. वे प्रबुद्ध प्रवचनकार मधुर संगीतकार, कुशल रचनाकार के साथ-साथ स्वाध्याय प्रेमी भी थी। प्रतिदिन लगभग २१०० गाथाओं का स्वाध्याय करती थी।
७. साध्वीश्री की गुरु के प्रति श्रद्धा तथा भक्ति अटूट थी। उनके हृदय की हर धड़कन में, मस्तिष्क के हर न्यूरोन्स में केवल गुरु का ही नाम रमा हुआ था।
८. आपश्री का समर्पण बेजोड़ था। आपका मस्तक गुरु चरणों में सदा प्रणत रहता। गुरु दृष्टि की आराधना के लिए आप सदैव समर्पण भाव से तैयार रहती।
९. आपका आभामंडल बहुत पवित्र तथा सकारात्मक ऊर्जा से भरा हुआ था। हर कोई आपके आभावलय में आकर सुख-शांति का अनुभव करता।
अनेक गुणों से सुशोभित साध्वीश्री का जीवन हर पल हमें साधना के हर क्षेत्र में आगे बढ़ने की प्रेरणा देता रहेगा। मैं धन्य तथा कृतज्ञ हूं आप जैसे अग्रगण्य को पाकर।
मैं विनम्रता की नजीर साध्वी प्रमुखाश्रीजी, आदरास्पद मुख्य मुनिप्रवर, आदरणीया साध्वीवर्याजी के प्रति भी हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करती हूं। नंदनवन चतुर्मास में आप सभी का आत्मीय प्रेरणा-पाथेय प्राप्त होता रहता था। वो स्वर्णिम पल शासनश्री साध्वीश्रीजी के जीवन की अमूल्य धरोहर बन गया। ‘शासनश्री’ साध्वीश्री सोमलता जी! आपकी भावना थी कि मुझे अंतिम समय में संथारा आए। आपको पहले ही कुछ पूर्वाभास हो चुका था, ऐसा प्रतीत होता है। आपकी भावना सफल हुई तथा आपने शूरवीर वीरांगना की तरह संथारा कर अपने जीवन को धन्य बनाया। तेरापंथ शासन की गरिमा पर सुयश का कलश चढ़ाया। युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी की शासना में नया इतिहास रच दिया तथा धर्मसंघ में अपना नाम रोशन कर दिया।
मुझे गौरव है कि अंतिम समय में चौविहार तेले में रात्रि में तिविहार संथारा पचखाने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ और मैं उनके उपकारों से कुछ ऋणी हो सकी। अंत में, श्रद्धार्पण के साथ यही मंगलकामना करती हूं कि शासनश्री की दिव्य आत्मा जहां कही भी हो शीघ्रातिशीघ्र मोक्ष का वरण करें।