पुष्प एक गुलाब का, मुरझा गया बाग से। दे गया सुगंध संसार को, त्याग के अनुराग से।।
सृष्टि की फुलवारी में अनेक पुष्प खिलते हैं और मुरझा जाते हैं लेकिन पुष्प की महत्ता व विशेषता इसी में है कि वह अपनी सौरभ से पूरी बगिया को सुगंधित कर देता है और लोगों को ताजगी व प्रफुल्लता से भर देता है। विश्व में अनेक जीव जन्म लेते हैं और मरते हैं लेकिन जीवन उसी का सार्थक होता है जो दूसरों के जीवन को भी नई दिशा व ऊर्जा से भरते हैं। ऐसा जीवन जीने वाले थे- ‘शासनश्री’ साध्वी सोमलता जी। वे तेरापंथ धर्मसंघ की विलक्षण साध्वी थी। उनका हृदय कोमलता व करूणा से ओत-प्रोत था। उनकी गुरु भक्ति बेजोड़ थी, वाणी में मधुरता थी, गायन कला में प्रवीणता थी, कार्यशैली अपूर्व थी। निज पर शासन, फिर अनुशासन को आत्मसात कर रखा था। उनका जीवन निर्लिप्त, निस्वार्थ और निस्पृह था। जल कमलवत् रहकर हम साध्वियों को ज्ञान दिया, सद्संस्कारों का सिंचन किया। ऐसी महान् साध्वीश्रीजी की नेहछाया में मुझे पुल्लवित होने का सौभाग्य मिला यह मेरी पुण्यवानी है। आपने मेरे जीवन को सद्गुणों से सजाया, संवारा। २४ वर्षों की अवधि में मैने उनके व्यक्तित्व को अनेक कोणों से देखा उसको शब्दों में बांधना मेरे लिए दुरूह है फिर भी मैं कुछ बिन्दुओं से उनके व्यक्तित्व व कर्तृत्व का उल्लेख करना चाहूंगी।
ज्ञान का अक्षय कोष:-
आपके पास ज्ञान का अखूट खजाना था। ज्ञानावरणीय कर्म का प्रबल क्षयोपशम था जो कुछ भी पढ़ लेते वह दीर्घकाल तक स्मृति के प्रकोष्ठों में सुरक्षित रहता। ज्ञान को समृद्ध बनाने के लिए घंटो-घंटो स्वाध्याय करते। वे प्रायः हम साध्वियों को शिक्षा देते हुए कहते- स्वाध्याय अमृत रसायन है। इसका सेवन करने से परम आनन्द की अनुभूति होती है। वेदना को समभाव से झेलने की शक्ति मिलती है। इसलिए तुम लोगों को भी आगम का स्वाध्याय हमेशा करना चाहिए। आप भी अप्रमत्त रहकर आगम स्वाध्याय के साथ अन्य साहित्यों का अध्ययन करते, नोट्स लिखते और उनका उपयोग प्रवचन करते समय किया करते। लेखन में, गीत में, प्रवचन में नवीन शब्दों का चयन करते। मैंने २४ वर्ष तक निरन्तर प्रवचन सुना, उन्होंने कभी भी एक बात को दोहराया नहीं।
सहिष्णुता की दिव्य मूरतः-
शासनश्रीजी ने अपने जीवन का साध्य बनाया कि मुझे समभाव से अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों को सहन करना है। शारीरिक वेदना ४२ वर्ष तक उनके संग रही। उसने जो पीड़ा दी उसको वे प्रसन्न चित्त से सहन करते रहे। कभी घबराये नहीं बल्कि हंसते-मुस्काराते रहे। जब साध्वियां पूछती इस वेदना को कैसे सहन कर पाते? आप प्रत्युत्तर में कहते- यदि शारीरिक वेदना को सहन नहीं करूंगी तो मृत्यु के समय होने वाली महावेदना को कैसे सहन कर पाऊंगी। मुझे कोमा में नहीं जाना है। जागरूकता पूर्वक समाधि मरण को प्राप्त करना है। सचमुच में अंतिम समय में उन्होंने अपने सपने को साकार किया। तेले का प्रत्याखान करना, अपने आप आनशन कर लेना। तीन दिन पहले ही बता दिया मैंने जिंदगी भर के लिए चौविहार प्रत्याख्यान कर लिया है। जब तक देह से विदेहावस्था को प्राप्त नहीं हुए तब तक सचेत अवस्था में रहे। यह सब सहिष्णुता की अनुप्रेक्षा का ही सुपरिणाम था।
सृजन शीलताः-
आपको प्रकृति से प्रेम था। रात्रि में सोते तब कहते मेरा बिछौना आकाश दिखे, चन्द्रमा दिखे वैसे स्थान पर करना। ताकि मैं प्रकृति के साथ भ्रमण कर सकूं। आप गीत की रचना करते उसमें प्रकृति का
सजीव चित्रण भी प्रस्तुत करते। आपकी रचनाएं चैतन्य को जागरण करने वाली होती। एक गीत में आपने लिखा है-
सुख निर्झर बहता भीतर में,
क्यों भटक रहे हो बाहर में।
मोती मिलते हैं सागर में,
क्यो भटक रहे हो बाहर में।।
गीतों में गुरु निष्ठा, संघ निष्ठा और आत्म निष्ठा के भाव होते। जीवन में अंतिम अवसान के समय में गुरु की महत्ता का गीत बनाया। तीर्थंकरों की स्तुति परक गीत भी वीतराग भाव को जागृत करने वाले होते।
प्रातः उठ परमेष्ठी वंदन करू सदा निष्काम।
शांति रहेगी आठो याम।।
विनम्रता की तस्वीर-
आपका जीवन विनय भाव से ओत-प्रोत था। समय-समय पर हम साध्वियों का विनम्र रहने का प्रशिक्षण भी देती और फरमाते कि धर्म का मूल-विनय है। अध्यात्म जीवन जीने का प्रथम सूत्र विनय है, इसलिए हमेशा बड़ों का विनय करना चाहिए।
आप स्वयं विनम्र थे। आपका प्रथम चतुर्मास सरदारपुरा में हुआ। उस समय आपके साथ जो साध्वियां वे सभी रत्नाधिक थी। आप अग्रणी थी। छोटे के काम बड़े करे यह आपको अच्छा नहीं लगता इसलिए साध्वीश्री शिवमालाजी को करने नहीं देते स्वयं करने की कोशिश करते। साध्वियों का सम्मान करते। यह थी उनकी विनम्रता की तस्वीर।
शासनश्री साध्वी सोमलता जी का जीवन विविध गुणों से सुरभित था। उदार, प्रमोद भावना, सहजता, स्वच्छता और प्राणी मात्र के साथ प्रेम भाव रखने वाली साध्वीश्रीजी को अग्रगण्य के रूप् में पाकर मैं अत्यन्त खुश हूं। अन्त में पुण्यात्मा, दिव्यात्मा के प्रति मंगलकामना करती हूं कि वे अतिशीघ्र महाविदेह क्षेत्र में जाकर मुक्ति का वरण करें।