संघ के लिए जितना करें उतना कम है
‘शासनश्री’ साध्वी सोमलता जी तेरापंथ धर्म संघ की एक प्रबुद्ध, विलक्षण, वक्ता और लेखिका थी। आपकी वाणी में मिठास, चेहरे पर चुम्बकीय आकर्षण व दूसरों से कार्य करवाने की अद्भुत कला थी। स्वास्थ्य की अनुकूलता न होने पर भी आपने लम्बी-लम्बी यात्रायें की। आपकी कार्य शैली अद्भुत थी। दूसरों का ऐसा उत्साह बढ़ाते कि वह काम करने के लिए तत्पर हो जाता। आसाम बिहार की यात्रा में हम दो सिंघाड़े साध्वी सोमलता जी ठाणा-५ और साध्वी मधुस्मिताजी ठाणा-५ थे। लम्बे-लम्बे विहार और आहार-पानी में पूरी ऊनोदरी। फिर भी साध्वी सोमलताजी ने ऐसी व्यवस्था की कि किसी को अंगुली उठानी नहीं पड़ी। यह थी उनकी कार्यकुशलता।
आपका प्रवचन हृदयस्पर्शी, आकर्षक व प्रेरक होता। ऐसे-ऐसे लोग जो कभी प्रवचन श्रवण नहीं करते वे भी आपके प्रवचन में दौड़े-दौड़े आते। जोबनेर में जब रात्रि में अंजना सती का प्रवचन होता तो आस-पास के क्षेत्रों से बसें की बसें बाती। ऐसा लगता मानो कोई पिक्चर का शाे लगा हो। सिद्धपुर में श्रद्धा के सिर्फ दो घर थे लेकिन रात्रिकालीन प्रवचन में लम्बी संख्या में जैन-जैनेतर लोग उपस्थित होते। कलकत्ता के प्रथम प्रवचन से लोग इतने आकर्षित हुए कि मित्र परिषद् साध्वीश्री जी के प्रवचन टी.वी. में प्रसारित करने को अातुर थीं। उनके प्रवचनों से जैन-जैनेत्तर ही नहीं सम्पूर्ण कलकत्ता लाभान्वित हुआ। दूसरे वर्ष भी जब यही क्रम हुआ तो साध्वीश्री ने उन्हें सुझाव दिया कि गुरुदेव का प्रवचन प्रसारित किया जाये तो अच्छा रहेगा। मित्र परिषद् ने यह बीड़ा हाथों में लिया और गुरुदेव तुलसी का प्रवचन संस्कार चैनल में प्रसारित करने लगे। तब से लेकर आज तक यह क्रम अनवरत चल रहा है।
कलकत्ता में एक ओर प्रभावक कार्य हुआ। कलकत्ता बड़े बाजार के महासभा में साध्वीश्री का चातुर्मास हुआ। उस समय तेरापंथ स्कूल का लम्बे अरसे से झगड़ा चल रहा था। गुरुदेव तुलसी के आशीर्वाद एवं साध्वीश्रीजी की विशेष प्रेरणा से वह झगड़ा सलट गया। यह एक विशेष उपलब्धि ही माननी चाहिए। आपके गीत अत्यन्त मार्मिक व हृदय स्पर्शी होते। ऐसा लगता देवी सरस्वती आपके कंठों में विराजमान थी। सिलीगुड़ी में आपके जन्मदिवस के अवसर पर श्रद्धानिष्ठ श्रावक प्रताप बैद ने साध्वीश्री से एक यादगार गीत की रचना करने का निवेदन किया। साध्वीश्री को वह बात ऐसी जची कि शारीरिक अस्वस्थता होते हुए भी आपने गीत बनाने का निश्चय कर लिया और मुझे फरमाया कि काॅपी पेन लाओ और जो मैं कहूं उसे नोट करो। सोए-सोए आप गीत की पंक्तियां बनाते गए और मैं लिखती गई।
“प्रातः उठ परमेष्ठी वंदन, करूं सदा निष्काम।
शांति रहेगी आठों याम।।”
यह गीत अमर बन गया। आज भी अनेकों श्रावक-श्राविकाओं के मुख पर यह गीत मुखरित हो रहा है। शासनमाता साध्वी प्रमुखा श्री कनकप्रभाजी ने भी फरमाया कि कीर्ति जी तुम्हारे अग्रगामी का गीत प्रसिद्ध हो गया। गुवाहाटी चातुर्मास में दो गुटों में आपसी विवाद था। एक गुट के लोगों ने साध्वी श्री को कहा कि यदि आप दूसरे गुट की बात मानना बंद कर दें तो हम आपको साध्वी प्रमुखा का पद भी दिला सकते हैं। साध्वीश्री ऐसे प्रलोभनों से काफी दूर थे। आपने निडरता के साथ कहा- मैं किसी दल की ओर झुकने वाली नहीं हूं सिर्फ सत्य की ओर झुकूंगी। यह थी उनकी निडरता।
साध्वीश्री हमें निरन्तर प्रेरणा देते कि संघ से हमें बहुत कुछ मिला है। अतः संघ का कर्जा हमारे सिर पर है। हम संघ के लिए जितना करें उतना ही कम है। मैंने देखा जब-जब भी गुरु दर्शन करते, चाहे यात्रा छोटी हो या बड़ी, कभी भी खाली हाथ नहीं जाते। दो-तीन रजोहरण, मुंहपत्तियां, डोरियां, सांकली आदि विभिन्न उपकरण भेंट में ले जाते। यह थी उनकी संघ के प्रति ऊऋणता।
आपके मन की एक तमन्ना थी कि मेरी सहवर्ती साध्वी को मैं अग्रगामी के रूप में देखूं। भावना को आकार मिला और साध्वीश्री कीर्तिलता जी जो १९ वर्षों तक आपके संग रहे उन्हें आचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने अग्रगामी बना कर बहिर्विहार में भेजा। आपके सान्निध्य में रहकर हमने खूब यात्रा की, खूब विकास किया, खूब काम किया। नये-नये घर बनायें। हमने जो कुछ भी सीखा है वह साध्वीश्री की ही देन है। साध्वीश्री छोटी अवस्था में ही कैंसर जैसी असाध्य बीमारी से जूझे। संघ में कैंसर का सबसे पहला ऑपरेशन आपका ही हुआ। आपकी सहनशीलता बेजोड़ थी। अंतिम समय तक बीमारियों से जूझते रहे। फिर भी निराशा का कुहासा आपको कभी सता नहीं पाया। अंतिम समय में संथारा कर जीवन का कल्याण किया। यह थी आपकी जागरूकता।