मैत्री भाव से नष्ट करें दूसरे के मन का वैमनस्य : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

मैत्री भाव से नष्ट करें दूसरे के मन का वैमनस्य : आचार्यश्री महाश्रमण

जिन शासन प्रभावक आचार्यश्री महाश्रमण जी आज प्रात: अपनी धवल सेना के साथ लगभग 13 किमी का विहार कर ताथावड़े पधारे। पूज्यवर ने पावन प्रेरणा प्रदान कराते हुए फरमाया कि आदमी के भीतर क्षमा की वृत्ति होती है और वैर भाव की वृत्ति भी हो सकती है। कभी गुस्से का भाव आ जाता है तो कभी क्षमा का भाव भी उभर जाता है। कभी शत्रुता का विचार उभरता है तो कभी मैत्रीपूर्ण भाव भी हमारे भीतर प्रस्फुटित हो सकते हैं। सबके प्रति मैत्री का भाव विकसित होना साधना की ऊंचाई की बात हो जाती है।
कहा गया है -
'रहिमन वे नर मर चुके, जो कहीं मांगण जाय।
उनसे पहले वे मरे, जिण मुख निकसत नाय।।'
मांगना बुरी बात है पर कोई मांगे और देने वाले के मुंह से ना निकल जाये तो वह उसकी अपेक्षा अधिक खराब है। अनुकूलता हो तो किसी को ना नहीं कहनी चाहिए। देने का आनुकूल्य ना हो तो भी सब प्राणियों के प्रति मैत्री भाव रहना चाहिए। क्षमादान देना बड़ी बात है। कोई जीव अपनी नीच प्रकृति को नहीं छोड़ता है तो साधु को भी साधुता की प्रकृति नहीं छोड़नी चाहिए। गुस्सा करना तो हमारी कमजोरी हो सकती है। हमारी वाणी में असभ्यता, अपशब्द न आये। कहा गया है- सहन करो, सफल बनो। छोटे ही नहीं बड़ों को भी कभी-कभी सहन करना होता है। क्षमा धर्म हमारे जीवन में रहे। प्रतिकूलता को भी शांति से सहनकर लें, सहिष्णुता रखें। ईर्ष्या का भाव न रखें। कोई आलोचना करे, उसके प्रति भी मंगलभावना करें। पातंजल योग दर्शन में कहा गया है कि अहिंसा की प्रतिष्ठा भीतर में हो जाये तो उसके सान्निध्य में आने वाले व्यक्ति का भी वैर भाव दूर हो सकता है। हमारी मैत्री भी कई बार दूसरों को प्रभावित करने वाली बन सकती है। निंदा करने वाले के प्रति भी अच्छा व्यवहार करें तो उसका व्यवहार बदल सकता है। हमारे मैत्री भाव से दूसरे के मन का वैमनस्य नष्ट हो सकता है। पूज्यवर के स्वागत में स्थानीय तेरापंथी सभा के अध्यक्ष प्रकाश गांधी, प्रकाश छाजेड़, डिंपल छाजेड़, संगीता चपलोत ने अपनी अभिव्यक्ति दी। तेरापंथ महिला मंडल पिंपरी चिंचवड़ ने गीत का संगान किया। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।