सम्यक्त्व के समान नहीं कोई मित्र या बन्धु : आचार्यश्री महाश्रमण
अध्यात्म रस की वर्षा करने वाले आचार्यश्री महाश्रमणजी आज प्रातः गोनावाड़ी पधारे। पूज्य प्रवर ने पावन प्रेरणा प्रदान कराते हुए फरमाया कि जैन वांग्मय में नव तत्त्व बताये गये हैं। नव तत्त्व की जानकारी और श्रद्धा का भी अपना महत्व है। जीव-अजीव आदि नव तत्त्व उत्तराध्ययन आगम में समाविष्ट किये गए हैं। इन नव तत्त्वों का सम्यक् बोध और यथार्थ श्रद्धा हो जाये तो यह सम्यक्त्व प्राप्ति का एक उपाय माना जा सकता है। प्रश्न होता है कि मैं कौन हूं? जो क्रियाएं शरीर द्वारा की जा रही हैं वो शरीर मैं ही हूँ या कुछ और है। मैं आत्मा हूं, जीव हूं, यह शरीर मैं नहीं हूं। यह शरीर तो नश्वर है, विनाश धर्मा है, एक दिन छूट जाता है। इसके सिवाय कोई और चीज है, वह आत्मा है। आत्मा का कभी नाश नहीं होता। वह तो अछेद्य है, शाश्वत है, अजर-अमर और अमूर्त है। मैं वह आत्मा हूं।
जो दिखाई दे रहा है, वह शरीर है, अजीव है, आत्मा से संपृक्त है। जब तक आत्मा भीतर में विद्यमान है, तब तक शरीर चलता-फिरता है। आत्मा विहीन शरीर शोभायमान नहीं रहता। आत्मा अलग है, शरीर अलग है, यह अध्यात्म का महत्वपूर्ण सिद्धांत है। आत्मा के साथ कर्म का बन्ध है, तो शरीर का भी बन्ध हो गया। बन्ध दो रूप में होता है- पुण्य का बन्ध और पाप का बन्ध। आश्रव के द्वारा कर्म का बन्ध होता है, आश्रव ही जन्म-मरण का हेतु है। संवर हो जाये तो आश्रव का अस्तित्व समाप्त हो सकता है। संवर मोक्ष का कारण है, निर्जरा से पूर्व संचित कर्मो का क्षय किया जा सकता है। सब कर्मों से मुक्त होने पर सूक्ष्म और सूक्ष्मतर शरीर छूट जायेगें, केवल आत्मा रहेगी, मोक्ष प्राप्त हो जायेगा।
नौ तत्वों को समझ कर संवर और निर्जरा की साधना करें तो मोक्ष की दिशा में हमारी गति-प्रगति हो सकती है। हमारा दृष्टिकोण यथार्थ परक हो जाये। वही सत्य है, सत्य ही है, जो जिनों द्वारा प्रवेदित होता है। सम्यक्त्व एक बहुत बड़ा रत्न है। सम्यक्त्व के समान कोई दूसरा मित्र, दूसरा कोई बन्धु-भाई और दूसरा कोई लाभ नहीं है। चारित्र भी सम्यक्त्व के बिना रह नहीं सकता। सम्यक्त्व तो चारित्र के बिना भी रह सकता है। चारित्र रहित तो मोक्ष जा सकता है, पर दर्शन रहित मोक्ष नहीं जा सकता। जिसको एक बार सम्यक्त्व आ गयी वो कभी न कभी मोक्ष अवश्य ही जायेगा। चारित्र से ज्यादा सम्यक्त्व का महत्व है। हमारा सम्यक्त्व निर्मल रहे।