दान के साथ ना हो नाम की  भावना : आचार्य श्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

दान के साथ ना हो नाम की भावना : आचार्य श्री महाश्रमण

तेरापंथ धर्म संघ के एकादशम् अधिशास्ता आचार्यश्री महाश्रमणजी पूना की ओर अग्रसर हैं। परम पूज्य आचार्य प्रवर आज प्रात: लगभग 10 किमी का विहार कर अम्बडवेर के जिला परिषद प्राथमिक शाला में पधारे। महातपस्वी ने मंगल देशना प्रदान कराते हुए फरमाया कि जैन दर्शन का एक सिद्धांत है- कर्मवाद। जैन दर्शन के अनेक वाद - सिद्धांत हैं। आत्मवाद भी एक सिद्धांत है जहां आत्मा का शाश्वत अस्तित्व स्वीकार किया गया है। आत्मा अमूर्त अमर है। आत्मा असंख्य प्रदेशात्मक पिंड वाली होती है। लोकवाद भी जैन दर्शन का एक बड़ा सिद्धांत है।
आगम वांग्मय व अनेक ग्रन्थों में कर्मवाद का उल्लेख प्राप्त होता है। पुण्य-पाप अपना-अपना होता है। खुद का पुण्य और पाप खुद को ही भोगना पड़ता है । पूज्य प्रवर ने आगे फरमाया कि दान के साथ नाम की भावना न हो। इतनी निर्मलता रहे कि नाम की भावना का पाप न लगे। दान से लाभ भी होता है। शुद्ध साधु को शुद्ध दान देने से धर्म का लाभ हो सकता है, लौकिक दान देने से ख्याति बढ़ जाती है, मित्र को दान देने से आपसी प्रेम बढ़ सकता है, शत्रु को देने से बैर भाव दूर हो सकता है, नौकर चाकर को देने से उनके मन में भक्ति का भाव बढ़ सकता है, राजा को दें तो राज में सम्मान बढ़ सकता है, कवि आदि को दान देने से वह यशोगान कर सकता है। इस प्रकार पात्र को दिया दान निष्फल नहीं जाता। कर्मवाद का ही सिद्धांत है- जैसी करणी वैसी भरणी। जो अच्छे कार्य करेगा उसका फल अच्छा मिलेगा। बुरे कार्य का बुरा फल मिलेगा। इसको समझकर जीवन में बुरे कर्मों से बचने का प्रयास करें। धर्म के कार्यों को करने का प्रयास करें। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।