श्रमण महावीर

स्वाध्याय

श्रमण महावीर

(िपछला शेष)
'मैं यह कब कहता हूं कि नहीं कर सकता। मैं यह कहना चाहता हूं कि जो व्यक्ति स्वतंत्रता की लौ को अखंड रखना चाहता है, उसे एक घर का विसर्जन करना ही होगा। वह विसर्जन, मेरी दृष्टि में, सब घरों को अपना घर बना लेने की प्रक्रिया है।'
'तुम महावीर को एकांगिता के आदर्श में क्यों प्रतिबिम्बित कर रहे हो, देव!'
मैं इस आरोप को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हूं। मैंने एक क्षण के लिए भी यह नहीं कहा कि गृहवासी मनुष्य स्वतंत्रता की खोज और उसका अनुभव नहीं कर सकता। मैं उन लोगों के लिए घर का विसर्जन आवश्यक मानता हूं, जो सबके साथ घुल-मिलकर उन्हें स्वतंत्रता का देय देना चाहते हैं। जहां तक मैं समझ पाया हूं, महावीर ने इसीलिए स्वतंत्रता के संकल्प की सार्वजनिक रूप से घोषणा की थी।
'वह घोषणा क्या थी?'
'महावीर ने ज्ञातखंड उद्यान में वैशाली के हजारों-हजारों लोगों के सामने यह घोषणा की, 'आज से मेरे लिए वे सब कार्य अकरणीय हैं जो पाप है।'
'पाप आन्तरिक ग्रन्थि है। महावीर ने उसका आचरण न करने की घोषणा की। इसमें घर के विसर्जन की बात कहां है?'
'पाप को तुम एक रटी-रटाई भाषा में क्यों लेते हो? क्या परतंत्रता पाप नहीं है? वह सबसे बड़ा पाप है और इसलिए है कि वह सब पापों की जड़ है। महावीर की घोषणा का हृद यह है मैं ऐसा कोई कार्य नहीं करूंगा जो मेरी स्वतंत्रता के लिए बाधा बने।'
महावीर ने स्वतंत्रता का अनुभव प्राप्त करने के पश्चात् यह कभी नहीं कहा कि सब आदमी घर छोड़कर जंगल में चले जाएं। उन्होंने उन लोगों के लिए इसका प्रतिपादन किया जो सब सीमाओं से मुक्त स्वतंत्रता का अनुभव करना चाहते हैं।
'महावीर ने केवल घर का ही विसर्जन नहीं किया, धर्म-सम्प्रदाय का भी विसर्जन किया था। भगवान् पार्श्व का धर्म-सम्प्रदाय उन्हें परम्परा से प्राप्त था, फिर भी वे उसमें दीक्षित नहीं हुए। महावीर ने दीक्षित होते ही संकल्प किया-मेरी स्वतंत्रता में बाधा डालने वाली जो भी परिस्थितियां उत्पन्न होंगी, उनका में सामना करूंगा, उनके सामने कभी नहीं झुकूंगा। मुझे अपने शरीर का विसर्जन मान्य है, परतंत्रता का वरण मान्य नहीं होगा।'
प्रबुद्ध अनन्त की ओर टकटकी लगाए देख रहा था। वह जानता था कि शून्य को भरने के लिए महाशून्य से बढ़कर कोई सहारा नहीं है।
पुरुषार्थ का प्रदीप
एक विद्यार्थी बहुत प्रतिभाशाली है। उसने पूछा, 'मनुष्य के जीवन का उद्देश्य क्या है?'
मैंने कहा, 'उद्देश्य जीवन के साथ नहीं आता। आदमी समझदार होने के बाद अपने जीवन का उद्देश्य निश्चित करता है। भिन्न-भिन्न रुचि के लोग हैं और उनके भिन्न-भिन्न उद्देश्य हैं।
विद्यार्थी बोला, 'इन सामयिक उद्देश्यों के बारे में मुझे जिज्ञासा नहीं है। मेरी जिज्ञासा उस उद्देश्य के बारे में है जो अंतिम है, स्थायी है और सबके लिए समान है।' क्षण भर अन्तर के आलोक में पहुंचने के पश्चात् मैंने कहा, 'वह उद्देश्य है स्वतंत्रता ।'
यह उत्तर मेरे अन्तस का उत्तर था। उसने तत्काल इसे स्वीकार कर लिया फिर भी मुझे अपने उत्तर की पुष्टि किए बिना संतोष कैसे हो सकता था? मैं बोला, 'देखो, तोता पिंजड़े से मुक्त होकर मुक्त आकाश में विहरण करना चाहता है। शेर को क्या पिंजड़ा पसन्द है? हाथी को जंगल जितना पसन्द है, उतना प्रासाद पसन्द नहीं है। ये सब स्वतंत्रता के अदम्य और शाश्वत ज्योति के ही स्कुलिंग हैं। महर्षि मनु ने ठीक कहा है, 'परतंत्रता में जो कुछ घटित होता है, वह सब दुःख है। स्वतन्त्रता में जो कुछ घटित होता है, वह सब सुख है।'