संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

शरीर मुक्ति का बाधक है। मुक्तात्मा का पुनः जन्म नहीं होता। अवतार वही आत्माएं लेती हैं जो सशरीरी हैं। शरीर पांच हैं– औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण। संसारी के दो और तीन शरीर सदा रहते हैं। कुछ आत्माओं में पांच शरीरों की योग्यता भी रहती है। दो शरीर में आत्मा अधिक देर नहीं रहती। उसे तीसरा शरीर शीघ्र ही धारण करना होता है। दो शरीरों का जघन्य कालमान एक समय है, और उत्कृष्ट दो, तीन या चार समय। ये दो सूक्ष्म शरीर अंतराल गति में होते हैं। आत्मा जब एक स्थूल शरीर को छोड़कर दूसरे स्थूल शरीर में प्रवेश करती है, उस गमन को अंतराल गति कहते हैं।
पांच शरीरों का स्वरूप–वर्णन
औदारिक शरीर
जो शरीर स्थूल पुद्गलों से निष्पन्न होता है वह औदारिक शरीर है। वैक्रिय आदि चारों शरीर सूक्ष्म, सूक्ष्मतर पुद्गलों से बने हुए होते हैं। औदारिक शरीर आत्मा से अलग हो जाने के बाद भी टिक सकता है। परन्तु वैक्रिय आदि शरीर आत्मा के अलग होते ही बिखर जाते हैं। औदारिक शरीर का छेदन–भेदन किया जा सकता है, परन्तु अन्य शरीर में छेदन–भेदन संभव नहीं। मोक्ष की प्राप्ति भी सिर्फ औदारिक शरीर से ही हो सकती है। औदारिक शरीर में हाड़, मांस, रक्त आदि होते हैं और इनका स्वभाव भी गलना, सड़ना, विनाश होना है।
वैक्रिय शरीर
जो शरीर छुटपन, बड़प्पन, सूक्ष्मता, स्थूलता, करूप, अनेक रूप आदि विविध क्रियाएं करता है, वह वैक्रिय शरीर है। जिस शरीर में हाड़, मांस, रक्त न हो तथा जो मरने के बाद कपूर की तरह उड़ जांए, उसको वैक्रिय शरीर कहते है ।
आहारक शरीर
चतुर्दश–पूर्वधर मुनि आवश्यक कार्य उत्पन्न होने पर जो विशिष्ट पुद्गलों का शरीर बनाते हैं, वह आहारक शरीर है।
तैजस शरीर
जो शरीर आहार आदि के पचाने में समर्थ है और जो तेजोमय है वह तैजस शरीर है। इसे वैद्युतिक शरीर भी कहा जाता है।
कार्मण शरीर
ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों के पुद्गल समूह से जो शरीर बनता है, वह कार्मण शरीर है।
तैजस और कार्मण शरीर–ये दोनों सूक्ष्म शरीर हैं। आत्मा के साथ इनका अनादि–संबंध है। औदारिक शरीर जन्म–संबंधी है। वैक्रिय शरीर जन्म संबंधी और लब्धिजन्य भी होता है। आहारक शरीर योग–शक्तिजन्य होता है।

ये तीनों शरीर सांगोपांग होते हैं। ये स्थूल शरीर हैं। स्थूल शरीर से मुक्त हो जाने पर आत्मा मुक्त नहीं होती है। आत्मा की मुक्ति तब होती है जब सूक्ष्म शरीर भी छूट जाते हैं। सूक्ष्म कार्मण शरीर से ही आत्मा स्थूल शरीर का निर्माण कर लेती है। 'कारणे सति कार्योत्पत्ति'–कार्य कारण के बिना उत्पन्न नहीं होता। सूक्ष्म शरीर न हो तो स्थूल शरीर कैसे हो सकता है? इसलिए एक शरीर से दूसरे शरीर के प्रवेश की कठिनाई नहीं रहती। आत्मद्रष्टा स्थूल शरीर को नहीं मिटाना चाहता, वह चाहता है मूल को उखाड़ना। जन्म और मृत्यु का मूल है सूक्ष्म –शरीर। सूक्ष्म शरीर का मूलोच्छेदन तब ही होता है जबकि आत्मा पूर्ण–संयम (निरोध) की स्थिति में पहुंच जाती है।
शरीर के तीन वर्ग हैं -
lस्थूल शरीर–औदारिक शरीर–हाड़–मांस का शरीर ।
lसूक्ष्म शरीर–वैक्रिय शरीर–नाना रूप बनाने में समर्थ शरीर ।
आहारक शरीर–विचार–संवाहक शरीर ।
lसूक्ष्मतम शरीर–तैजस शरीर–तापमय शरीर ।
कार्मण शरीर–कर्ममय शरीर।