विशुद्ध व्यवहार से आत्म निर्मलता की दिशा में बढ़ें आगे : आचार्यश्री महाश्रमण
आदमी के जीवन व्यवहार में पवित्रता और विशुद्धता आती है और ईमानदारी-अहिंसा का संकल्प मन में रहता है तो मानना चाहिये उसके भीतर गुणवत्ता का संचार हुआ है। उपरोक्त विचार तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशम् अधिशास्ता आचार्य श्री महाश्रमण जी ने अपनी मंगल देशना में व्यक्त किए। आचार्य प्रवर ने आगे फरमाया कि सारे मनुष्य साधु बन जाए यह तो कठिन बात है, जो बड़े भाग्य शाली होते हैं वे ही साधुत्व का स्पर्श कर सकते हैं। साधु का वेश पहन लेना तो छोटी बात है पर साधुत्व का आत्म परिणामों में प्रवेश होना विशेष बात होती है। जो साधु नहीं बन सकते, गृहस्थ जीवन जीना चाहते हैं उनके लिए गार्हस्थ्य में आचरण योग्य छोटी-छोटी शिक्षाएं बताई गई हैं।
सामान्य धर्म की पहली बात बताई- सुपात्र दान। साधु घर में आये तो दान की भावना रखनी चाहिए। सुपात्र दान देना धर्म का काम है, लौकिक दान से मान-सम्मान बढ़ सकता है। अच्छी भावना से दान किसी को भी दें वह निष्फल नहीं जाता। दूसरी बात बताई- गुरुओं के प्रति विनय रखना चाहिए। सामान्य धर्म के बारे में आगे बताया गया कि सभी जीवों के प्रति दया-अनुकम्पा की भावना होनी चाहिए, न्याय के मार्ग पर चलना चाहिए। दूसरे के हित का ध्यान रखें, हो सके तो किसी का कल्याण करें, किसी का अहित ना करें। आगे बताया गया कि लक्ष्मी, विद्या आदि का अहंकार नहीं करना चाहिए और सज्जनों-साधुओं की संगति करनी चाहिए। पूज्य प्रवर ने आगे फरमाया सामायिक, पौषध, माला आदि समयबद्ध धर्म है, ये आत्मा की शुद्धि के उपाय हैं, उपासना रूपी धर्म है। दूसरा धर्म व्यवहार का धर्म होता है, व्यवहार में ईमानदारी-नैतिकता रहे। गुरुदेव श्री तुलसी द्वारा प्रवर्तित अणुव्रत व्यवहार रूपी धर्म है। उसे जैन-अजैन, नास्तिक-आस्तिक कोई भी अपने व्यवहार में स्वीकार कर सकता है। प्रेक्षाध्यान भी भीतर की शुद्धि, राग-द्वेष मुक्ति की बात सिखाता है। ध्यान, योग, अनुप्रेक्षा से भी हम आत्म निर्मलता की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं। विद्यार्थियों को भी शिक्षा के साथ अणुव्रत जैसे सामान्य धर्म के संस्कार मिलते रहें तो बच्चे अच्छे बन सकते हैं और अच्छी पीढ़ी का निर्माण हो सकता है, समाज और राष्ट्र का विकास हो सकता है। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।