धर्म है उत्कृष्ट मंगल
पिताश्री! खाना इतना खा लिया है कि न तो उद्गार (डकार) हो रहा है और न ही अधोवायु का निस्सरण। और भोजन के लिए निमन्त्रित किया गया हूं। आप बताएं क्या करू?
पिता ने कहा-
भोजनं कुरु दुर्बद्धे! मा प्राणेषु दयां कुरु।
परान्नं दुर्लभं लोके शरीराणि पुनः पुनः।।
पुत्र! प्राणों की चिन्ता मत करो, जाओ भोजन करो। मुफ्त का भोजन कब- कब मिलता है? शरीर तो अगले जन्म में फिर मिल जाएगा।
पिता की यह व्यंग्य प्रेरणा उपभोक्तावादी संस्कृति में पलने वालों के लिए एक बोध-पाठ है।
भाव अवमोदरिका द्रव्य अवमोदरिका से कहीं अधिक मूल्यवान् है। उसके उतने ही प्रकार हो सकते हैं जितने मनुष्य के निषेधात्मक भाव होते हैं। आगम में उसके सात प्रकार मिलते हैं-
अल्पक्रोध- क्रोध को प्रतनु (पतला) करना, क्षमा का प्रयोग करना।
अल्पमान - अहंकार को प्रतनु करना, विनम्रता का प्रयोग करना।
अल्पमाया - छलना का परिहार करना, सरलता का विकास करना।
अल्पलोभ - इच्छा, लालसा का संयम करना, संतोषी वृत्ति अपनाना।
अल्पशब्द- अनपेक्षित और दूसरों को बाधा पहुंचाने वाली भाषा का प्रयोग न करना।
अल्पझञ्झा - कलह का वर्जन करना, कोपाविष्ट होकर शब्दों की बौछार न करना।
अल्पतुमंतुम - तिरष्कारपूर्ण 'तू-तू' शब्दों का प्रयोग न करना।
इस प्रकार क्रोध आदि को अल्प करना भाव अवमोदरिका है। भावशुद्धि के लिए इसकी साधना आवश्यक है।
भाव अवमोदरिका तो कठिन है ही, द्रव्य अवमोदरिका भी सबके लिए आसान नहीं है। जिह्या-संयम सधे बिना वह अनुष्ठित नहीं हो सकती।
एक बहुभोजी व्यक्ति सन्त के पास गया और बोला- आप अनुभवी हैं, बताइए में कौन-सी दवा लूं जिससे भोजन ठीक तरह से पच जाए? सन्त ने कहा- जब तक एक दवा नहीं लोगे, और दवा क्या काम करेगी? वह दवा है ऊनोदरी। तुम ज्यादा खाते हो और पाचन क्रिया को खराब करते हो। ऊनोदरी करो, कम खाओ, पाचन के लिए यह सर्वश्रेष्ठ दवा है।
ऊनोदरी का प्रयोजन
ऊनोदरी शारीरिक स्वास्थ्य के लिए जहां लाभदायक है वहीं आध्यात्मिक साधना के विभिन्न अंगों की सम्यक् आराधना में भी वह सहायक बनती है। दिगम्बर-साहित्य में कहा गया है-
धम्मावासय जोगे णाणादीये उवग्गहं कुणदि।
णय इंदियप्पदोसयरी उमोदरितवो वुत्ती ।।
क्षमा, मुक्ति आदि दस धर्मों की साधना, सामायिक आदि आवश्यकों की आराधना, योग, स्वाध्याय और इन्द्रिय-नियन्त्रण में ऊनोदरी तप सहायक बनता है। इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ऊनोदरी तप किया जाना चाहिए।
ऊनोदरी और स्वास्थ्य
'ऊनोदरी' शब्द 'थोड़ा' का अर्थ देने वाला है। साधु-जीवन निश्चितता और अनिश्चितता का जीवन है। निश्चिन्तता इस रूप में कि वहां कोई चिन्ता नहीं होती। भिक्षा में कल क्या मिलेगा? यह चिन्ता साधु नहीं करता। आज जो उपलब्ध है उसी में वह सन्तुष्ट रहता है, साधना में तल्लीन होकर आत्मानन्द का जीवन जीता है। अनिश्चितता इस रूप में कि मुनि को कभी सरस, कभी विरस, कभी ठण्डा और कभी गरम, कभी पर्याप्त और कभी अपर्याप्त भोजन मिलता है। इसीलिए यह कहा जाता है- 'कदेइ घी घणां, कदेइ मुट्टी चणां' कभी भोजन नहीं भी मिलता है और कभी अल्प मिलता है। मुझे स्मरण है भिक्षा में आहार कम उपलब्ध होने पर एक हमारे स्थविर सन्त बहुधा एक सूत्र दोहराया करते थे 'थोडे में गुण घणा' कम में बहुत गुण होते हैं। आहार कम होगा तो ऊनोदरी तप होगा, पाचनक्रिया ठीक रहेगी। वस्त्र कम हैं तो उनके प्रतिलेखन और प्रक्षालन में समय कम लगेगा। बातों की आदत कम है तो स्वाध्याय ध्यान में अधिक संलग्नता होगी।