श्रमण महावीर
(िपछला शेष)
वह अपने आवेग को रोक नहीं सका। वह जैसे ही रस्सी को हाथ में ले महावीर को मारने दौड़ा, वैसे ही घोड़ों के पैरों की आहट ने उसे चौंका दिया। महाराज नंदिवर्द्धन उस दृश्य को देख स्तब्ध रह गए। महाराज ने ग्वाले को महावीर का परिचय दिया। वह अपनी मूर्खता पर पछताता हुआ वापस चला गया।
महावीर की ध्यान प्रतिमा संपन्न हुई। महाराज नंदिवर्द्धन सामने आकर खड़े हो गए। बोले, 'भंते! आप अकेले हैं। जंगल में ध्यान करते हैं। आज जैसी घटना और भी घटित हो सकती है। आप मुझे अनुमति दें, मैं अपने सैनिकों को आपकी सेवा में रखूं। वे आप पर आने वाले कष्टों का निवारण करते रहेंगे।'
भगवान गंभीर स्वर में बोले, 'नंदिवर्द्धन! ऐसा नहीं हो सकता। स्वतंत्रता की साधना करने वाला अपने आत्मबल के सहारे ही आगे बढ़ता है। वह दूसरों के सहारे आगे बढ़ने की बात सोच ही नहीं सकता।
यह घटना स्वतंत्रता का पहला सोपान है। इसके दोनों पार्थों में स्वावलंबन और पुरुषार्थ प्रतिध्वनित हो रहे हैं।
स्वावलंबन और पुरुषार्थ-ये दोनों अस्तित्व के चक्षु हैं। ये वे चक्षु हैं, जो भीतर और बाहर दोनों ओर समान रूप से देखते हैं। मनुष्य अस्तित्व की श्रृंखला की एक कड़ी है। पुरुषार्थ उसकी प्रकृति है। जिसका अस्तित्व है, वह कोई भी वस्तु क्रिया शून्य नहीं हो सकती। इस सत्य को तर्कशास्त्रीय भाषा में इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है– अस्तित्व का लक्षण है क्रियाकारित्व। जिसमें क्रियाकारित्व नहीं होता, वह आकाश–कुसुम की भांति असत् होता है, मनुष्य सत् है, इसलिए पुरुषार्थ उसके पैर और स्वावलंबन उसकी गति है।
असंग्रह का वातायन : अभय का उच्छ्वास
एक दिन मैं सूक्ष्म लोक में विहार कर रहा था। अकस्मात् शरीर-चेतना से संपर्क स्थापित हो गया। मैंने पूछा, 'शरीर धर्म का आय साधन है– यह तुम्हारी स्वयं की अनुभूति है या दूसरों की अनुभूति का शब्दावरण?'
'क्या इसमें आपको सच्चाई का भान नहीं होता?'
'मुझे यह अपूर्ण सत्य लग रहा है।'
'वाणी में उतरा हुआ सत्य अपूर्ण ही होगा। उसमें आप पूर्णता की खोज क्यों कर रहे हैं?'
'मनुष्य-लोक की समस्या से सम्भवतः तुम अपरिचित हो। शरीर की प्रतिष्ठा के साथ स्वार्थ और व्यक्तिवाद प्रतिष्ठित हो गए हैं। इस समस्या के समाधान के लिए पूर्णता की खोज क्या अपेक्षित नहीं है? तुम्हारी अनुभूति का मूल्य इस सत्य के संदर्भ में ही हो सकता है– शरीर अधर्म का आद्य साधन है।'
'यह कैसे?'
'अधर्म का मूल आसक्ति है, मूर्च्छा है। उसका प्रारम्भ शरीर से होता है। फिर वह दूसरों तक पहुंचाती है।'
मुझे प्रतीत हुआ है कि शरीर-चेतना मेरी गवेषणा का अनुमोदन कर रही है फिर भी मैंने अपनी उपलब्धि की पुष्टि में कुछ कह दिया, 'भगवान् महावीर ने सत्य का साक्षात्कार करने पर कहा, 'चेतन और देह की पृथक्ता का बोध हुए बिना दृष्टिकोण सम्यक् नहीं होता।'
सांख्य-दर्शन का अभिमत है- 'विवेक ख्याति प्राप्त किए बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती।'
वेदान्त का सिद्धान्त है- 'देहाध्यास से मुक्ति पाए बिना साधना का पथ प्रशस्त नहीं होता।'
मैं शरीर-चेतना को भगवान महावीर के दीक्षाकालीन परिपार्श्व में ले गया । हमने देखा-महावीर घर छोड़कर अकेले जा रहे हैं। उनके शरीर पर केवल एक वस्त्र है, वही अधोवस्त्र और वही उत्तरीय। फिर आभूषणों की बात ही क्या? वे शरीर-अलंकरण को छोड़ चुके हैं। पैरों में जूते नहीं है। भूमि और आकाश के साथ तादात्म्य होने में बाधा नहीं आ रही है। भोजन के लिए कोई पात्र नहीं है। पैसे का प्रश्न ही नहीं है। वे अकेले चले जा रहे हैं। सचमुच अकेले! विसर्जन की साधना प्रारम्भ हो चुकी है-देह के ममत्व का विसर्जन, संस्कारों का विसर्जन, विचारों का विसर्जन और उपकरण का विसर्जन ।