महावीर का जन्म अहिंसा, मैत्री, समता और संयम का जन्म है

महावीर का जन्म अहिंसा, मैत्री, समता और संयम का जन्म है

बीज से वटवृक्ष बनने वाली ऊर्ध्वारोही चेतना का नाम है- भगवान महावीर। अज्ञात से ज्ञात की यात्रा में शिखर का स्पर्श करने वाली पवित्र चेतना का नाम है- भगवान महावीर। अजेय पराक्रम के पुरोधा पुरूष का नाम है- भगवान महावीर। अजेय पराक्रम के अक्षय स्रोत भगवान महावीर को प्राप्तकर धरा धन्य हो उठी। दिशाओं ने मंगल गीत गाकर चरम तीर्थपति की वर्धापना की। अम्बर ने अभय का अनूठा आशीर्वाद दिया। मां त्रिशला के आंगन में जिनशासन के धवल भास्कर ने अवतरित होकर समूचे विश्व को अमन-चैन का पैगाम दिया। भगवान महावीर महावीर का जन्म व्यक्ति का नहीं समष्टि का जन्म है।
भगवान महावीर का जन्म अहिंसा का जन्म है। उन्होंने कहा- ‘अहिंसा परमो धर्मः’। उन्होंने मन, वचन एवं काया से अहिंसा की अखण्ड आराधना की। स्थूल हिंसा ही नहीं सूक्ष्म हिंसा का भी परित्याग कर अहिंसामय बन गए। उनके शरीर के रोम-रोम से अहिंसा की मंदाकिनी प्रवाहित होती रही। आज जरूरत है महावीर की अहिंसा हमारे जीवन में अवतरित हो। हम सिर्फ स्थूल हिंसा पर ही अपने ध्यान को केन्द्रित न करें, बल्कि वाचिक हिंसा व मानसिक हिंसा से बचने का भी अभ्यास करें। अहिंसा हमारी जीवन शैली का अंग बने। हम अहिंसा के आभूषण से जीवन का श्रृंगार करें एवं रिश्तों में मिठास घोलने का यत्न करें।
भगवान महावीर का जन्म मैत्री का जन्म है। उन्होेंने कहा- ‘मेत्ति मे सव्वभूएसु’, सब प्राणियों के प्रति मैत्री हो। उन्होंने प्राणी जगत को मैत्री का संदेश दिया। उनके अन्तस्तल से मैत्री का निर्झर प्रस्फुटित हुआ और चारों ओर फैल गया। भगवान महावीर के मैत्री भाव ने चंडकौशिक को भद्रकौशिक बना दिया। प्रचण्ड दृष्टिविष सर्प चण्डकौशिक भगवान के चरणांगुष्ठ से मैत्री का अमृतपान कर सदा-सदा के लिए शांत हो गया। भगवान महावीर के जीवन से मैत्री का मंत्र लेकर हम भी अपने जीवन को मुदितामय बनाएं। भगवान महावीर का जन्म करूणा का जन्म है। उनके मन उपवन में करूणा के फूल खिले, जिसकी सुवास से धरती-अम्बर सुवासित हो गए। महावीर के हृदय से करुणा का दरिया हिलोरे लेता था, इसलिए वो जन-जन के भगवान बने।
एक बार का प्रसंग, राजकुमार वर्धमान बचपन में अपने आंगन में क्रीड़ा कर रहे थे। खेलते-खेलते उनका ध्यान आंगन में बर्तन साफ करने वाली दासी पर गया। दासी बर्तन धोते-धोते रो रही थी एवं अपने पल्लू से आंखें पौंछ रही थी। राजकुमार वर्धमान उस दासी के पास पहुंचे एवं पूछा- मैया! क्या हुआ? क्यों रो रही हो? दासी ने कहा- राजकुमार तुम यहां से चले जाओ, यहां खड़े मत रहो। ठेकेदार मुझे डांटेगा। राजकुमार ने कहा- नहीं जाऊंगा, पहले तुम मुझे रोने का कारण बताओ। तब दासी ने कहा-राजकुमार! आपको देखकर मुझे अपने पुत्र की याद आ गई। मेरा पुत्र आज बुखार से तप रहा है, उसने मुझे कहा- मां। तुम आज काम पर मत जाओ, मेरे पास ही बैठो। किन्तु ये ठेकेदार मुझे छुट्टी नहीं दे रहा है। वो कहता है कि अपना काम पूरा करके जाओ। आपको खेलते देखकर मुझे रोना आ गया। मेरा बेटा भी आपके जितना है। अगर वो ठीक होता तो वो भी आपकी तरह खेलता कूदता। आज उसको मेरी जरूरत है किन्तु मैं एक दासी हूं, अपनी इच्छा से नहीं जा सकती। बालक वर्द्धमान का हृदय करूणा से द्रवित हो गया। उन्होंने कहा- मैया! ये बर्तन मैं साफ करूंगा, तुम अपने पुत्र की संभाल करो। सचमुच वो करूणा के महासागर थे। उनकी संवेदनशीलता एवं करूणा ने दुनिया को करूणा का बोध पाठ पढ़ाया। भगवान महावीर का जन्म समता का जन्म है। भगवान महावीर ने अपने जीवन में समता की उत्कृष्ट साधना की। अनुकूल प्रतिकूल किसी भी परिस्थिति में उनकी समता विखण्डित नहीं हुई। उन्होंने संदेश दिया ‘पुढवी समे मुणी हवेज्जा’ पृथ्वी की तरह सहनशील बने।
भगवान महावीर के जीवन में अनेक उपसर्ग आए। संगम देव ने 20 मारणान्तिक उपसर्ग दिए। ग्वाले ने पैरों में खीर पकाई, कानों में कीलें ठोकी गई । अनार्य-देशों में भयंकर कष्ट आए पर वे मेरू पर्वत की तरह अप्रकम्प व अडौल रहे। उनके भीतर धरणी-सा धीरज था। यदि महावीर की समता हमारी जीवन-पोथी का मुख्य पृष्ठ बन जाए तो जीवन पोथी सुन्दर एवं शानदार बन सकती है। भगवान महावीर का जन्म संयम का जन्म है। उनके शरीर के कण-कण से संयम की साधना का नाद अनुगूंजित होता था। उन्होंने अपने जीवन-सागर में उठने वाली राग-द्वेष् की चंचल उर्मियों को संयम की पतवार से शांत किया। साधना के शिखर पुरूष भगवान महावीर की जीवन यात्रा में अहिंसा, मैत्री, समता, करूणा, संयम का प्रवाह अविरल बहता ही रहता था। उनका सम्पूर्ण जीवन अप्रमत्त योग की अनिर्वचनीय कहानी है। उनकी अनासक्ति की साधना और साहस ने उन्हें राजकुमार वर्द्धमान से तीर्थंकर महावीर बना दिया।
अहिंसा के अग्रदूत भगवान महावीर ने उनके पथ का अनुगामी बनने की बात नहीं कही, उन्होंने नहीं कहा कि तुम मेरे पुजारी बनो। महावीर को तो महावीरत्व ही पसंद है। हर व्यक्ति महावीर बनने की दिशा में प्रस्थान करे, तभी महावीर जयंती मनाना सार्थक होगा।