अहिंसा, संयम और तप की त्रिवेणी में होते रहें निष्णात : आचार्यश्री महाश्रमण
औरंगाबाद की ओर गतिमान जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशम् अधिशास्ता आचार्य श्री महाश्रमण जी अपनी धवल सेना के साथ अहमदनगर के अहमदनगर एज्यूकेशन सोसायटी परिसर में पधारे। विशाल जनमेदिनी को आर्हत् वाणी का रसास्वाद कराते हुए परम पावन ने फरमाया कि जैन आगम दसवेआलियं के प्रथम श्लोक में मानों धर्म का सार भरा हुआ है। संक्षेप में धर्म की व्याख्या इसमें आ गयी है। आदमी मंगल चाहता है, मंगल की कामना स्वयं के लिए भी करता है तो मौके-मौके पर दूसरों के प्रति भी मंगल की कामना करता है।
शास्त्रकार ने कहा कि धर्म उत्कृष्ट मंगल है, धर्म से उत्तम और कोई मंगल नहीं होता। श्लोक में किसी धर्म का नाम नहीं है पर कहा गया कि अहिंसा, संयम और तप धर्म है। आध्यात्मिक रूप में सारा धर्म इन तीनों में समाविष्ट हो जाता है। आगे धर्म की महिमा बतायी गयी है कि जिसके मन में अहिंसा, संयम और तप रूपी धर्म रचा-पचा रहता है उसे देवता भी नमस्कार करते हैं। साधु तो अहिंसामूर्ति, संयममूर्ति और तपोमूर्ति होते हैं, वे देवों के लिए पूजनीय हो सकते हैं। किसी भी धर्म को मानने वाला अहिंसा, संयम, तप की आराधना करता है, उसका मंगल होता है। भगवान महावीर से जुड़ा हमारा धर्म शासन है, जैन धर्म में अहिंसा का सूक्ष्मता से पालन होता है। साधुओं के लिए अहिंसा महाव्रत निर्दिष्ट है। गृहस्थों में भी अहिंसा के प्रति जागरुकता रहती है। मुख वस्त्रिका से भी हम अहिंसा के साथ वाणी संयम की प्रेरणा ले सकते हैं।
आज की दुनिया में मन, वचन, काय एवं इन्द्रियों का असंयम काफी बढ़ गया है। शिक्षण संस्थानों में विद्यार्थियों को संयम के संस्कार मिलते रहें। उनमें ईमानदारी, नशा मुक्ति की भावना रहे। सोशियल मीडिया के उपयोग का भी संयम हो। भौतिकता पर आध्यात्मिकता का कन्ट्रोल रहे। Want और Need के अंतर को समझते हुए इच्छाओं का परिमाण करें। इससे आत्मा का हित और मानसिक शांति भी रह सकती है। जैनशासन में तपस्या का भी बहुत महत्व है। तपस्या के बारह प्रकार बताये गये हैं। तप से स्वयं को तपाने से चित्त की निर्मलता बढ़ती है। इस प्रकार अहिंसा, संयम और तप को उत्कृष्ट मंगल बताया गया है।
पूज्य प्रवर ने आगे फरमाया कि आनन्द ऋषिजी महाराज और आचार्य श्री तुलसी समकालीन रहे हैं। आचार्य श्री तुलसी का दिल्ली में उनसे सौहार्द पूर्ण मिलन हुआ था। जैन शासन में अहिंसा, संयम और तप का प्रचार-प्रसार होता है। खुद की आत्मा में अहिंसा, संयम और तप की भावना हो और दूसरों को भी अहिंसा, संयम और तप का सन्देश समझाने का प्रयास हो। जैन धर्म के अनुयायी विदेशों मे रहते हैं। वहां भी धर्म का प्रचार-प्रसार हो। हमारे धर्म संघ से समणियां विदेशों मे प्रवास करती हैं। वे वहां नयी पीढ़ी को जैनधर्म के संस्कार देने का प्रयास करती हैं। बालपीढ़ी में भी अच्छे संस्कार आएं।
अहिंसा, संयम और तप रूपी त्रिवेणी में हम निष्णात होते रहे। अहिंसा की पालना के लिए रात्रि भोजन, जमीकंद से बचने का प्रयास करें। होटल, हॉस्टल और हॉस्पिटल में भी भोजन की समीक्षा करें। घर-परिवार में भी शान्ति रहे, जीवन में सादगी रहे। जीवन में सद्गुण रूपी आभूषण रहे, ज्ञान-शिक्षा में विद्वता रहे। संयम के आभूषण के सामने भौतिक आभूषण बहुत छोटे हैं। जैन समाज में लौकिक सेवा के उपक्रम भी चलते हैं पर धर्म की अपनी महत्ता है, धर्म आत्म कल्याण कराने वाला है। जीवन में अहिंसा धर्म, संयम धर्म और तप धर्म रहे। धन तो यहीं रहने वाला है पर धर्म का प्रभाव आगे भी साथ में जाने वाला है।
आचार्य प्रवर के स्वागत में विद्यार्थियों ने गीत की प्रस्तुति दी। अहमदनगर एजुकेशन सोसायटी की ओर से छाया ताई फिरोदिया, वासुपूज्य स्वामी शश्वेतांबर संघ की ओर से अशोक मुथा, संगीता बच्छावत, सुभाष नाहर, यश पटावरी ने अपने भावों की अभिव्यक्ति दी। तेरापंथ महिला मंडल, छत्रपति संभाजीनगर ने गीत का सुमधुर संगान किया। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमार जी ने किया।