साध्य-साधन- संज्ञान

स्वाध्याय

साध्य-साधन- संज्ञान

'शांत होकर सीधे बैठ जाओ या लेट जाओ और कल्पना करो कि जनन- शक्ति को नीचे से खींचकर ऊपर सौर्यकेन्द्र में ला रहे हैं, जहां यह जन्मशक्ति परिवर्तित होकर प्राणरूप में संचित रहेगी। ध्यान शक्ति पर रहे। काम की कल्पना न होए अगर आ जाये तो चिंता न करें। इस कल्पना के साथ अब तालयुक्त सम मात्रा में श्वास लें। प्रत्येक श्वास में मैं शक्ति को ऊपर खींच रहा हूं और दृढ़ इच्छा से आज्ञा दो कि शक्ति जननेन्द्रिय से खिंच कर सौर्य- केन्द्र में चली आये। यदि ताल ठीक जम गया और कल्पना स्पष्ट हो गयी होगी तो यह स्पष्ट पता चलेगा कि शक्ति ऊपर आ रही है और उसकी उत्तेजना का अनुभव भी हो रहा है। यदि मानसिक बल बढ़ाना हो तो शक्ति को मस्तिष्क में भेजो, उसी के अनुकूल आज्ञा दो और कल्पना करो। प्रत्येक श्वास में शक्ति को ऊपर खींचो और प्रत्येक निश्वास में निर्दिष्ट स्थान पर भेजो। इससे आवश्यक शक्ति कार्य में योजित होगी और शेष सौर्य-केन्द्र में संचित रहेगी। 
वीर्य न ऊपर खींचा जाता है और न परिवर्तित होता है, किन्तु उसकी प्राण शक्ति ही खींची जाती है। इस अभ्यास के समय सिर को थोड़ा आगे सरलतापूर्वक झुका लेना अच्छा होगा। 
भोजन शक्ति देता है। जब शक्ति से व्यक्ति भरता है तब उसका स्व-नियंत्रण नहीं रहता। उत्तेजना पैदा होती है और उसका उपयोग उचित या अनुचित किसी भी तरह हो, यह संभव है। वैज्ञानिक कहते हैं- मौलिक जीवाणु अमीबा है। अमीबा स्त्री-पुरुष दोनों में है। उसमें जनन प्रक्रिया अद्भुत है। वह सिर्फ भोजन करता है। शक्ति मिलने से टूटता है और दो में विभक्त हो जाता है। वे दोनों भी स्त्री-पुरुष दोनों हैं। फिर वे भोजन करते हैं, शक्ति बढ़ती है। शक्ति बढ़ने से दो टुकड़ों में विभक्त होकर अमीबा जन्म देता है। और आदमी में शक्ति बढ़ने से मिलता है। वासना जागती है, वह जो मिलन में सुख होता है- वह दो के मिलन-जुड़ने से होता है। भोजन सर्वथा छोड़ना शक्य नहीं है। इसलिए यहां कहा है कि साधक वैसा भोजन न करे; जिससे विकृति को उत्तेजना मिले। वह निम्नोक्त तथ्यों पर ध्यान दे- 
१. चालू भोजन में परिवर्तन करे। वह गरिष्ठ रसयुक्त और उत्तेजनात्मक भोजन को छोड़कर निस्सार और रूखा भोजन करे । 
२. भोज्य-पदार्थों में कमी करे और मात्रा से कम खाए। अधिक चीजें और अधिक भोजन दोनों ही स्वास्थ्य और साधना के शत्रु हैं। 
३. कायोत्सर्ग करे – बार-बार शरीर का उत्सर्ग करने वाले व्यक्ति पर बाहरी परिस्थितियों का कोई असर नहीं होता। 
४. एक स्थान पर सदा न रहे – एक स्थान पर अधिक रहने से स्थानीय व्यक्तियों के साथ ममत्व हो जाता है। 
५. आहार का त्याग करे – काम-विकार यदि उग्र रूप से पीड़ित 
करने लगे तो साधक भोजन का भी निषेध करे। भोजन के न मिलने पर शरीर स्वयं ही शांत हो जाता है। शरीर की निश्चलता से मन भी उपशांत हो जाता है। 
१७. श्रद्धां कश्चिद् व्रजेत् पूर्वं पश्चात् संशयमृच्छति। 
पूर्वं श्रद्धां न यात्यन्तःए पश्चाच्छ्रद्धां निषेवते॥ 
१८. पूर्वं पश्चात् परः कश्चित् श्रद्धां स्पृशति नो जनः। 
पूर्वं पश्चात् परः कश्चित् सम्यक् श्रन्द्रां निषेवते॥ 
(युग्मम्)
कोई पहले श्रद्धालु होता है और फिर लक्ष्य के प्रति संदिग्ध बन जाता है। कोई पहले संदेहशील होता है और पीछे श्रद्धालु। कोई न पहले श्रद्धालु होता है और न पीछे भी। कोई पहले भी श्रद्धालु होता है और पीछे भी।