धर्म है उत्कृष्ट मंगल

स्वाध्याय

धर्म है उत्कृष्ट मंगल

(िपछला शेष)
भोजन के साथ विभिन्न प्रकारों से ऊनोदरी को जोड़ा जा सकता है। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं–
१. अल्प मात्रा- भोजन की मात्रा कम करना। कुछ भूख रहे उसी स्थिति में भोजन छोड़ देना।
२. अल्प द्रव्य- भोजन में द्रव्यों की सीमा करना, नौ, ग्यारह, पन्द्रह आदि द्रव्यों से अधिक न खाना।
३. अनध्यशन - बार-बार न खाना। एक बार प्रातराश अथवा भोजन के बाद चार-पांच घण्टे तक कुछ भी न खाने का संकल्प करना, प्रहरतप करना, रात्रि भोजन न करना, प्रातः नमस्कार संहिता (नवकारसी) आदि करना।
उपवास में तो खाना सर्वथा छूट जाता है पर भोजन करते समय खाने का संयम करना, जिह्वा पर नियंत्रण रखना भी एक कठिन तपस्या है।
द्रव्य ऊनोदरी और भाव ऊनोदरी (क्रोध, लोभ आदि का परिहार) की साधना अच्छी चले तो हम मोक्ष को ओर गतिमान्, प्रगतिमान हो सकते हैं। उस स्थिति में शारीरिक दौर्बल्य आदि के कारण बड़ी तपस्या का न होना भी मोक्ष में बाधक नहीं बनता है। इस महामहिम ऊनोदरी तप के व्यापक परिप्रेक्ष्य में यह कहना भी असंगत नहीं लगता कि 'खाते-पीते मोक्ष' सम्भव है।
संकल्प का प्रयोग
अभिग्रह तप
मनुष्य में जितनी क्षमता होती है उतना उसका उपयोग नहीं होता। उसका एक कारण है संकल्प का अभाव। कल्पना जब तक कल्पना रहती है वह संकल्प नहीं बनती। जब वह स्थिरता और निश्चितता तक पहुंच जाती है तो संकल्प बन जाती है। संकल्प एक शक्ति है। उसका प्रयोग रचना और विध्वंस दोनों में किया जा सकता है। यह व्यक्ति के विवेक पर निर्भर है कि वह उसका उपयोग किस दिशा में करता है। दृढ़संकल्पी के लिए दुष्कर कुछ नहीं होता। इसी भाव का प्राकृत साहित्य का एक सूक्त मननीय है- 'निच्छिय ववसियस्स एत्थं कि दुक्करं करणयाए।'
युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी ने अणुव्रत आंदोलन का प्रवर्तन किया। वह व्रत और संकल्प की चेतना को विकसित करने का प्रयोग है, छोटे-छोटे संकल्पों द्वारा व्यक्ति-निर्माण और स्वस्थ समाज संरचना को प्रक्रिया है।
महामना आचार्य भिक्षु महनीय संकल्प-चेतना के धनी थे। उन्होंने धर्म-क्रांति की। उसकी पृष्ठभूमि में उनका संकल्प-बल था। उसके बिना वह संभव नहीं था। उनकी इस संकल्प-चेतना के उद्द्बुद्ध होने में निमित्त बना एक रात्रि का तीव्र ज्वर। उससे उन्हें बोध-पाठ मिला। वे धर्म-क्रांति के लिए कृत-संकल्प हो गए।
अनाथी मुनि ने यौवन में भरे-पूरे सम्पन्न परिवार को छोड़ साधुत्व स्वीकार किया। उनकी संकल्पचेतना जागृत हो गई थी। उसमें निमित्त बनी उनकी आंखों की वेदना। कोई भी चिकित्सक और स्वजन उनकी दहला देने वाली वेदना को मिटा नहीं सका। उन्होंने अशरणता और अत्राणता की वास्तविकता को पहचाना और आत्म तत्त्व को पाने के लिए उद्यत हो गए।
निश्चय-शक्ति-सम्पन्न, पौरुष के प्रतीक पुरुषों की यशोगाथा नीतिकारों ने भी गाई है 'विघ्नैः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः, प्रारब्धमुत्तमजना न परित्यजन्ति' बार-बार विघ्न-बाधाओं से प्रताड़ित होने पर भी उत्तम (दृढ़संकल्पी) मनुष्य अपने प्रारम्भ किए हुए कार्य को बीच में नहीं छोड़ते। अभ्यास और प्रयोग के द्वारा अपनी संकल्प-शक्ति को बढ़ाया भी. जा सकता है। उसके विभिन्न उपक्रम हैं।
निर्जरा के बारह भेदों में तीसरा भेद है भिक्षाचर्या। इसे वृत्तिसंक्षेप, वृत्तिसंख्यान और वृत्तिपरिसंख्यान भी कहा जाता है। इसमें 'अभिग्रह' स्वीकार किया जाता है। अभिग्रह उच्छृंखल और अनियंत्रित मन के निग्रह का प्रयोग है, संकल्प का प्रयोग है। मुनि के परिप्रेक्ष्य में इसे भिक्षा के साथ जोड़ा गया है। उसके चार प्रकार हैं- द्रव्य अभिग्रह, क्षेत्र-अभिग्रह, काल-अभिग्रह और भाव- अभिग्रह।
द्रव्य-अभिग्रह - भिक्षा में अमुक द्रव्य (चावल, दाल आदि) मिलेगा तो भिक्षा ग्रहण करूंगा, अन्यथा नहीं। अमुक द्रव्य के सिवा कुछ भी ग्रहण नहीं करूंगा- यह द्रव्य संबंधी अभिग्रह है।
क्षेत्र-अभिग्रर्ह - अमुक स्थान में भिक्षा मिलेगी तो ग्रहण करूंगा अन्यथा नहीं, जैसे- भिक्षा देने वाली महिला देहली को अपने दोनों पैरों के मध्य किए हुए खड़ी खड़ी भिक्षा दे तो भिक्षा लूंगा, अन्यथा नहीं।
काल-अभिग्रह- अमुक समय में भिक्षा मिलेगी तो उसे स्वीकार करूगा, अन्यथा नहीं।