दुनिया में रहते हुए करें अनासक्त रहने का प्रयास : आचार्यश्री महाश्रमण
जिन शासन प्रभावक आचार्य श्री महाश्रमण जी अहमदनगर से विहार कर आनन्द धाम होते हुए विश्व भारती पधारे। पूज्यप्रवर ने मंगल देशना प्रदान कराते हुए फरमाया कि जैसे गीली मिट्टी दीवार के चिपक जाती है, वैसे ही आसक्ति का भाव होता है तो कर्म का बन्ध ज्यादा-सघन हो सकता है, और जैसे सुखी मिट्टी दीवार के नहीं चिपकती वैसे ही अनासक्ति के भाव से कोई प्रवृत्ति की जाती है तो कर्म का बन्ध सघन नहीं होता है। जीवन को चलाने के लिए हमें पदार्थों का भी सहयोग लेना होता है। पदार्थ हमारे काम में आते हैं। शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्श आदि अनेक रूपों में पदार्थों, पुद्गलों के साथ हमारा संपर्क होता है। सामुदायिक जीवन में कई व्यक्तियों के साथ जीना होता है। सामुदायिक जीवन की अलग व्यवस्था है, एकाकी जीवन की अपनी व्यवस्था होती है। सामुदायिक जीवन में संघर्ष आदि समस्याएं भी हो सकती हैं तो एक-दूसरे का सहयोग भी मिल सकता है।
आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र में बताया है- परस्परोपग्रहो जीवानाम्। जीवों का परस्पर आलंबन, सहयोग होता है। छःद्रव्यों में से पांच द्रव्य तो दूसरों को सहयोग करने वाले होते हैं पर जीव परस्पर एक दूसरे का सहयोग कर देते हैं। जैसे गाय का दूध मनुष्यों को मिलता है और मनुष्य गायों की सेवा, सुरक्षा करते हैं तो उनका भी सहयोग हो जाता है। मनुष्य एक-दूसरे का सहयोग भी करते हैं। हम सामुदायिक रूप में रहते हैं तो हमें परस्पर सहयोग मिलता है। पदार्थ भी हमारे काम आते हैं और व्यक्ति भी हमारे काम आते हैं। मूल बात है आसक्ति और अनासक्ति की। आसक्ति पाप कर्म बन्ध का कारण है, अनासक्ति से पापकर्म का बन्ध नहीं होता।
'जे समदृष्टि जीवड़ा, करे कुटुंब प्रतिपाल।
अन्तर दिल न्यारा रहे, ज्यूं धाय रमावे बाल।।'
धाय माता एक बच्चे का लालन पालन करती है परंतु मन में यह स्पष्ट जानती है कि यह बच्चा मेरा नहीं है, मेरा काम तो बस इसकी सेवा करना मात्र है। इसी प्रकार सम्यक् दृष्टि व्यक्ति यह सोचे कि परिवार की सेवा-सुश्रुषा करना मेरा दायित्व है पर आखिर मैं अकेला ही हूं। दायित्व तो निभाना है पर उसमें आसक्ति का भाव नहीं होना चाहिए। जैसे पद्मपत्र पानी से अलिप्त रहता है, इसी प्रकार आदमी पदार्थों की दुनिया, समाज-परिवार में रहते हुए अनासक्त रहने का प्रयास करे। यह सोचे- मैं अकेला आया हूं, मुझे अकेला जाना है। मेरा किया हुआ कर्म मुझे ही भोगना है।
पुण्य-पाप प्रत्येक का अपना-अपना होता है। अनासक्ति से कार्य करें, नाम प्रतिष्ठा की भावना न रहे। निर्जरा में भी केवल मोक्ष की कामना रहे, भौतिक कामना होने से तपस्या का तेज भी कम हो सकता है। एक निर्जरा के सिवाय और किसी भी उद्देश्य से तपस्या नहीं करनी चाहिए। अतः सूखे गोले की तरह निष्काम, अनासक्त रहने का प्रयास करें, यह हमारे लिए हितकर हो सकता है।पूज्यप्रवर के स्वागत में विश्व भारती एकेडमी की ओर से अध्यापिका वैशाली नवले, हाई स्कूल के प्रिंसिपल राज कुमार ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमार जी ने किया।