साध्य-साधन- संज्ञान

स्वाध्याय

साध्य-साधन- संज्ञान

आत्मा इस संसार में अनंतकाल से भ्रमण करती है। उसे अपने स्वरूप का ज्ञान नहीं हुआ। यह अज्ञान ही सारे क्लेशों की जड़ है। मोह कर्म का जब उपशम या क्षयोपशम होता है तब आत्मा को अपना बोध होता है।
अपने में उसकी श्रद्धा बढ़ जाती है। क्षय अवस्था में वह बोध चिरस्थायी बन जाता है, अन्यथा अज्ञान की फिर भी संभावना बनी रहती है। वह संदेहशील बन जाती है। कुछ व्यक्ति ऐसे भी होते हैं जिन्हें कभी आत्म-बोध का अवसर ही नहीं मिलता। वे सदा मोह से आवृत रहते हैं। इसी आधार पर व्यक्तियों के चार विभाग किए गए हैं-
१. श्रद्धालु और संदिग्ध
आचार्य आषाढ़भूमि चातुर्मास के लिए अपने सौ शिष्यों के साथ उज्जयिनी आये। चातुर्मास चल रहा था। लोग धर्म रस का रसास्वाद कर रहे थे। अकस्मात् नगर में महामारी का प्रकोप हो गया। अनेक लोग काल-कवलित होने लगे। महामारी की मार से आचार्य का शिष्य परिवार भी वंचित नहीं रहा। एक-एक कर निन्यानवे साधु उसकी चपेट में आ गये। आचार्य ने सबको समाधिस्थ रहने का मंत्र देते हुए कहा– 'मरना सबको है। उसकी मृत्यु नहीं है जिसने स्वयं को जान लिया है। यह अवसर है, अपने मन को स्वयं में योजित करो।' सबके सब शिष्य समाधि-मृत्यु को प्राप्त हुए। आचार्य ने एक-एक कर सबको कहा था– एक बार स्वर्ग से पुनः लौटकर आना। किंतु आश्चर्य की बात है, कोई नहीं आया। छोटा शिष्य जो अंत में विदा हुआ था, वह भी नहीं आया। तब आचार्य की आस्था का आधारभूत भवन प्रकंपित हो गया। उन्होंने सोचा न स्वर्ग है और न नरक। ये सब झूठ हैं। साधु जीवन को छोड़कर आचार्य आषाढ़भूति ने अपना मुख पुनः संसार की ओर कर लिया।
जैसे ही आचार्य साधु जीवन का त्यागकर निकले कि उस छोटे शिष्य का (देव आत्मा का) आसन प्रकंपित हुआ। उसने अपने ज्ञान से जाना कि आचार्य विदा हो गए हैं। वह आया उसने मार्ग में एक नाटक रचा। आचार्य उसे देखने में व्यस्त हो गए। नाटक पूरा हुआ, आगे बढ़े। कुछ छोटे-छोटे छह बच्चे वन्दना करने सामने आये। गहनों से लदे थे। आचार्य के मन में लोभ जागा। उन्होंने छहों बच्चों को मारकर गहनों से झोली भर ली। आगे कुछ बढ़े ही थे कि इतने में अनेक लोग सामने आ गए। भोजन के लिए लोगों ने हठ किया। आचार्य के इंकार करने पर भी लोग जबरदस्ती से झोली पकड़ कर उसमें भोजन डालने लगे। जब पात्र में गहनों को देखा तो लोग अवाक् रह गए। किसी ने कहा– यह मेरे लड़के का है और किसी ने कहा– यह मेरे लड़के का। लोग धिक्कारने लगे। मन ही मन कहने लगे– भगवन्! यह क्या? इतने में शिष्य ने सब माया समेटी और बोला- आंखें खोलो गुरुवर! आपका शिष्य सामने खड़ा है। आंखें खोली। न कोई आदमी, न गांव। पूछा- क्या बात है? देव ने कहा- यह सब मैंने किया था। देर हो गयी मेरे आने में। आप समझें, स्वर्ग है, देव है, नरक है। गुरु आश्वस्त हो गए। उन्होंने अपने को साधना पथ पर पुनः अधिरूढ़ कर जीवन का लक्ष्य प्राप्त किया।
२. संदिग्ध और श्रद्धालु
भवदेव और भावदेव दो भाई थे। भवदेव बड़े थे। माता के विशुद्ध संस्कारों से संस्कारित होकर वे यौवन में साधक–संत हो गए। भावदेव जवान हुए। विवाह हुआ। पत्नी को लेकर आ रहे थे। मार्ग में भवदेव के दर्शन हुए। भाई ने नश्वरता का बोध-पाठ दिया। थोड़े से जीवन को वासना की अग्नि में भस्मसात् करना क्या उचित है? मन तो नवोदा में था, किंतु भाई से संकोचवश कुछ बोले नहीं। संन्यास ले लिया। मन बार-बार पत्नी का स्मरण करता है। वे सोचते हैं-भाई की मृत्यु हो जाये तो घर जाऊं। भाई आत्मसमाधि पूर्वक मरण को प्राप्त हुए और उधर भावदेव घर की ओर चल पड़े। गांव के बाहर आकर उपाश्रय में ठहरे। लोगों से पूछा अपनी मां श्राविका रेवती के लिए। लोगों ने कहा- उसका स्वर्गवास हो गया। फिर अपनी पत्नी नागला के लिए पूछा। संयोग की बात थी कि जिसे पूछ रहे थे वह नागला ही थी। नागला समझ गई कि मुनि का मन अस्थिर है। वे घर आना चाहते हैं। उन्हें प्रतिबोध देना चाहिए। उसने कहा- 'मुनिवर! वह अपनी 'सास' जैसी दृढ धर्मात्मा है, तत्वज्ञा है और शीलधर्म से सुशोभित है।' मुनि ने कहा- 'मैं यह नहीं पूछता। मैं तो पूछता हूं, वह है तो सही।' उत्तर देकर वह चली गयी। एक-दो बहिनों को लेकर वह वहां पुनः चली आयी, वंदन किया और सामायिक लेकर बैठ गयी।