असंग्रह का वातायन :  अभय का उच्छ्वास

स्वाध्याय

असंग्रह का वातायन : अभय का उच्छ्वास

गाएं अरण्य में चरने को आने लगीं। घास अभी बढ़ी नहीं थी। भूमि अभी अंकुरित ही हुई थी। सुधातुर गाएं घास की टोह में आश्रम की झोपड़ी तक पहुंच जाती थीं। अन्य सभी तापस अपनी-अपनी झोपड़ी की रक्षा करते थे। गाएं उस झोपड़ी पर लपकतीं, जिसमें महावीर ठहरे हुए थे। वे उसके छप्पर की घास खा जाती हैं, तापस ने कुलपति से निवेदन किया-मेरी झोंपडी के छप्पर की घास गाएँ खा जाती हैं। मेरे अनुरोध करने पर भी महावीर उसकी रक्षा नहीं करते। अब मुझे क्या करना चाहिए?' उसके मन में रोष और संकोच–दोनों थे।
कुलपति अवसर देख महावीर के पास आया और बड़ी धृति के साथ बोला, 'मुनिवर! निम्नस्तर की चेतना वाला एक पक्षी भी अपने नीड़ की रक्षा करता है। मुझे आश्चर्य है कि आप क्षत्रिय होकर अपने आश्रम की रक्षा के प्रति उदासीन हैं। क्या मैं आशा करूं कि भविष्य में मुझे फिर किसी तापस के मुंह से यह शिकायत सुनने को नहीं मिलेगी?'
महावीर ने केवल इतना-सा कहा, 'आप आश्वस्त रहिए। अब आप तक कोई उलाहना नहीं आएगा।'
कुलपति प्रसन्नता के साथ अपने कुटीर में चला गया।
महावीर ने सोचा, 'अभी मैं सत्य की खोज में खोया रहता हूं। मैं अपने ध्यान को उससे हटाकर झोपड़ी की रक्षा में केन्द्रित करूं, यह मेरे लिए सम्भव नहीं होगा। झोपड़ी की घास गाएं खा जाती हैं यह तापसों के लिए प्रीतिकर नहीं होगा। इस स्थिति में यहां रहना क्या मेरे लिए श्रेयस्कर है?'
इस अश्रेयस् की अनुभूति के साथ-साथ उनके पैर गतिमान हो गए। उन्होंने वर्षावास के पन्द्रह दिन आश्रम में बिताए, शेष समय अस्थिकग्राम के पार्श्ववर्ती शूलपाणि यक्ष के मन्दिर में बिताया।
आश्रम की घटना ने महावीर के स्वतंत्रता-अभियान की दिशा में कुछ नए आयाम खोल दिये। उनके तत्कालीन संकल्पों से यह तथ्य अभिव्यंजित होता है। उन्होंने आश्रम से प्रस्थान कर पांच संकल्प किए-
१. मैं अप्रीतिकर स्थान में नहीं रहूंगा।
२. प्रायः ध्यान में लीन रहूंगा।
३. प्रायः मौन रहूंगा।
४. हाथ में भोजन करूंगा।
५. गृहस्थों का अभिवादन नहीं करूंगा।'
अन्तर्जगत् के प्रवेश का सिंहद्वार उद्घाटित हो गया। लौकिक मानदण्डों का भय उनकी स्वतंत्रता की उपलब्धि में बाधक नहीं रहा। अब शरीर उपकरण और संस्कारों की सुरक्षा के लिए उठने वाला भय का आक्रमण निर्वीर्य हो गया।

भय की तमिस्त्रा अभय का आलोक
भगवान् महावीर साधना के पथ पर निरंतर आगे बढ़ रहे हैं। उनका आत्मबल प्रबल और पुरुषार्थ प्रदीप्त हो रहा है। उनका पथ विघ्नों और बाधाओं से भरा है। तीखे-तीखे कांटे चुभन पैदा कर रहे हैं किन्तु वे एक क्षण के लिए भी उनसे संत्रस्त नहीं हैं।
१. साधना का पहला वर्ष चल रहा है। महावीर का आज का ध्यान-स्थल अस्थिकग्राम है। वे शूलपाणि यक्ष के मन्दिर में ध्यान मुद्रा के लिए उपस्थित हैं। गांव के लोगों का मन भय से आकुल है। पुजारी भी भयभीत है। उन सबने कहा, 'मुनिवर! आप गांव में चलिए। यह भय का स्थान है। यहां रहना ठीक नहीं है। शूलपाणि यक्ष बहुत क्रूर है। जो आदमी रात को यहां ठहरता है, वह प्रातः मरा हुआ मिलता है।'