अनुकूलता व प्रतिकूलता में सम रहने वाले महावीर को नमस्कार : आचार्यश्री महाश्रमण
कौन से महावीर को नमस्कार करें? किसी का नाम महावीर है या किसी स्थान का नाम महावीर से संबद्ध है या जो मरीची थे या वर्धमान जब बालरूप में थे, किसको नमस्कार करें? श्लोक में कहा गया है कि निर्विशेषमनस्काय जिनका मन समता में था, ऐसे समता पुरुष महावीर स्वामी को मेरा नमस्कार है। प्रश्न होता है कि उन्होंने किन बातों में समता रखी? श्लोक में उदाहरण दिया गया है कि चण्डकौशिक सर्प ने पाद स्पर्श किया, काटा तो भी द्वेष भाव में नहीं और एक ओर सुरेन्द्र ने नमन किया तो भी समत्व भाव में रहे। एक अनुकूलता की स्थिति और दूसरी प्रतिकूलता की स्थिति, इन दोनों में जो निर्विशेष रहे, ऐसे वीर स्वामी को मेरा नमस्कार है। उपरोक्त विचार अहिंसा यात्रा प्रणेता आचार्य श्री महाश्रमणजी ने पावन प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए व्यक्त किए।
भगवान महावीर समता योगी, समता-साधक, समता मूर्ति महापुरुष थे। वर्धमान बच्चे के रूप में रहे, पाठशाला भी गए, युवावस्था में गार्हस्थ्य में प्रवेश भी हुआ। जब तक माता-पिता उपस्थित थे तब तक उन्होंने दीक्षा नहीं ली उनके देहावसान के बाद भाई नन्दीवर्धन से आज्ञा प्राप्तकर दो वर्ष बाद दीक्षा ली। नन्दीवर्धन के दो साल बाद दीक्षा के लिए स्वीकृति संभवतः इस कारण से दी होगी कि माता-पिता के देहावसान के साथ भाई के वियोग की बात उन्हें स्वीकार नहीं थी या फिर राजकीय शोक के समय दीक्षा महोत्सव करने में प्रतिकूलता थी। दो वर्षों में भी वर्धमान का जीवन त्याग और संयम के साथ ही बीता।
मृगसर कृष्णा दशमी के दिन महावीर ने दीक्षा ली। दीक्षा लेते समय उन्होंने प्रतिज्ञा की कि अब से सारे सावद्य कार्य मेरे लिए अकरणीय हैं, जो भी उपसर्ग आएंगे उन्हें समता भाव से सहन करूँगा। लगभग 12.5 वर्ष तक उनकी साधना चली। इस साधना काल में ही चण्डकौशिक सर्प से भी मिलना हुआ मानो नागराज को भी महावीर का पाँव मिला जिससे उसका कल्याण हो गया। उसने भगवान महावीर से प्रतिबोध प्राप्त किया, जातिस्मृति ज्ञान हुआ और अनशन कर वैमानिक देवलोक में पैदा हुआ।
जो आत्मा साधु बनी, तीर्थंकर बनी, उस भाव अवस्था वाले, साधुत्व वाले महावीर को नमस्कार करता हूँ। चार निक्षप हो जाते हैं - नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। महापुरुष जितने भी हुए हैं वे कल्याणी वाणी की वागरणा करने वाले होते हैं। दुनिया में कितने धर्म, पंथ, महापुरुष और संत हुए हैं। अच्छी वाणी किसी भी ग्रन्थ में है, किसी भी पंथ में है, किसी भी सन्त की है, अच्छी वाणी तो अच्छी ही है, सच्ची वाणी सच्ची ही है। अच्छी और सच्ची वाणी का सम्मान है। ग्रन्थों को सुनें या पढ़ें तो हमें ज्ञानात्मक लाभ मिल सकता है। हम वीतरागता, समता की साधना में आगे बढ़ने का प्रयास करें। पूज्यप्रवर के स्वागत में स्थानीय सरपंच बालासाहब राव, प्रधानाचार्य प्रताप कालेसर ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमार जी ने किया।