अलोभ से लोभ को प्रहत करने का करें प्रयास : आचार्यश्री महाश्रमण
साम्ययोग के महासाधक आचार्य श्री महाश्रमण जी बीड़ का द्विदिवसीय प्रवास संपन्न कर पेड़गांव पधारे। मंगल देशना प्रदान कराते हुए आचार्य प्रवर ने फरमाया कि कषाय के द्वारा कर्म मल का आगमन होता है। कषाय को दो भागों में विभाजित करें तो राग और द्वेष हो जाते हैं, चार भागों में बांटना चाहे तो क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय हो जाते हैं। सबसे बाद में क्षीण होने वाला कषाय लोभ होता है। क्रोध, मान और माया ये तीनों चले जाते हैं, तो भी लोभ अन्त में थोड़ा विद्यमान रहता है। लोभ एक वृत्ति है, इस वृत्ति के कारण आदमी आपराधिक प्रवृत्ति में संलग्न हो सकता है। लोभ को पाप का बाप कहा गया है। बहुत से पापों की जड़ में लोभ बैठा होता है। अति लोभ कष्टकारी हो सकता है, अति सर्वत्र वर्जित है। ज्यों-ज्यों लाभ होता है, त्यों-त्यों लोभ बढ़ता जाता है। लाभ रूपी जल लोभ रूपी जड़ को सिंचन देने वाला हो सकता है। लोभ की प्रवृत्ति से अध्यात्म की चेतना दौर्बल्य को प्राप्त हो सकती है, जब अध्यात्म की चेतना प्रबल होती है तब लोभ को क्षीण होना होता है। हमारी लोभ की चेतना क्षीण हो, ऐसा प्रयास करना चाहिए।
अलोभ से लोभ को हम कम करने का प्रयास करें। संतोष की चेतना को प्रबल करने का प्रयास करें। कहा गया है- 'जब आये सन्तोष धन, सब धन धूलि समान।' आदमी को जो नहीं मिलता है, उसके प्रति कसक रह जाती है, यह लोभ की प्रवृत्ति है। जो संत लोग जगत की मोह-माया से उपर उठे हुए हैं, कंचन-कामिनी के त्यागी हैं, वीतरागता की दिशा में आगे बढ़ने वाले हैं वे तो आकिन्चन्य को प्राप्त हो गये हैं। लोभ के कारण आदमी बेईमानी की ओर प्रवृत्त हो सकता है। लोभ को हम प्रहत करने का प्रयास करें, मन में संतोष की अनुप्रेक्षा करें, इच्छाओं का परिसीमन करें, भोग-उपभोग में सीमा करें। गृहस्थ भी जीवन में त्याग- संयम की साधना करें। त्यागी साधु बहुत सुखी हो सकता है, मोह-माया में लिप्त आदमी दुःखी रह सकता है। गृहस्थ स्वर्ण में मूर्च्छित न हो जाए, परिग्रह में रहते हुए भी पानी में कमल पत्र की तरह निर्लिप्त-अनासक्त रहने का, लोभ को जीतने का प्रयास करें।