समर्पण में शर्त नहीं और भक्ति में अहंकार नहीं : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

समर्पण में शर्त नहीं और भक्ति में अहंकार नहीं : आचार्यश्री महाश्रमण

तेरापंथ के केंद्र युगप्रधान आचार्य श्री महाश्रमणजी का आज प्रातः साकत में पदार्पण हुआ। पूज्यप्रवर ने पावन अमृत देशना देते हुए फरमाया कि हमारे यहां साधु-साधी संस्था में आतिथ्य सत्कार के सन्दर्भ में भक्ति शब्द प्रयोग होता है। भक्ति शब्द में बहुत गरिमा है। किसी का भक्त होना श्रद्धा व बहुमान का भाव है। जैन शासन में भगवान ऋषभ से लेकर भगवान महावीर तक, चौबीस तीर्थंकरों को नमस्कार किया गया है। यह नमन है, इसमें भी भक्ति है। निर्ग्रन्थ प्रवचन के प्रति भक्ति है कि यही निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य है। तीर्थंकरों एवं उनके द्वारा प्रवर्तित प्रवचन के प्रति भी भक्ति की भावना होनी चाहिए। भक्ति अपने आराध्य, अपने आदर्श के प्रति हो सकती है। समर्पण में शर्त और भक्ति में अहंकार नहीं होना चाहिए। 'लेकिन' और 'यदि' जहाँ आ जाए, कोई ननुनच हो जाए मानना चाहिए कि वहां पूर्णतया समर्पण नहीं है।
जब मैं था तब तुम नहीं, जब तू था तब मैं नाय।
प्रेम गली अति सांकड़ी, जामे दो न समाय।।
जहां अहंकार है वहां प्रभु नहीं हैं और जहां प्रभु है वहां अहंकार नहीं है। भक्ति की गली संकड़ी है जिसमें दोनों एक साथ नहीं रह सकते। अपने-अपने स्तर की भक्ति हो सकती है। गुरु के प्रति भक्ति होती है, हमारे यहां आचार्य और गुरुदेव एक ही होते हैं, उपाध्याय भी कोई अलग साधु नहीं होता। भिक्षु स्वामी से लेकर आज तक किसी भी साधु को उपाध्याय का पद नहीं दिया गया। यह भी भक्ति का, अद्वैतवाद का अनूठा उदाहरण है। यहाँ पावर सेन्टर एक ही है। श्रावक समाज के लिए भी भक्ति का केन्द्र एक ही होता है। दर्शन-सेवा करने भी कहीं जाना हो तो गुरु के पास ही जाना होता है।
भक्ति योग में श्रद्धा, आस्था और निरहंकारता के साथ विनयपूर्ण व्यवहार होता है। किसी के पैर में अपना मस्तिष्क लगा देना बहुत बड़ी भक्ति है। भले राजा, राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री हो उनके पैरों में भी प्रायः कोई नहीं झुकता है। भक्ति व्यक्ति, आराध्य, आदर्श और सिद्धान्त के प्रति भी हो सकती है। भगवान महावीर हमारे आराध्य हैं, सिद्धत्व को प्राप्त आत्मा हैं, उनके नाम के सामने सब जैन एक हो जाते हैं। आचार्य भिक्षु का भी भगवान महावीर के प्रति भक्ति, नैकट्य और समर्पण का भाव था। भिक्षु स्वामी के प्रति भी कितनी भक्ति देखने को मिलती है। उनकी भक्ति में कितने-कितने गीतों की रचना हुई है। वे हमारे धर्म संघ में आस्था के केंद्र हैं। उत्तरवर्ती आचार्यों के प्रति भी हमारी भक्ति हो सकती है, जिनके पास दीक्षा ली, जिनसे प्रेरणाएं मिलीं, उनके प्रति भी कृतज्ञता का भाव, भक्ति का भाव हो सकता है।
भक्ति से शक्ति भी प्राप्त हो सकती है। नवकार मंत्र में पवित्र-आत्माओं का उल्लेख है, उनके प्रति भी भक्ति हो। ईमानदारी के प्रति भी भक्ति हो सकती है। हम अपनी साधना, ज्ञान, ध्यान में विकास करते रहें। आचार्य प्रवर ने मुनि वृन्द की जिज्ञासाओं का सम्यक समाधान कर हाजरी वाचन करवाया। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।