स्वाद - विजय का  प्रयोग

स्वाध्याय

स्वाद - विजय का प्रयोग

आसक्ति-विजय के विभिन्न प्रयोगों में एक है रस-परित्याग। निर्जरा के बारह भेदों में इसका चौथा स्थान है। यह एक स्वाद-विजय का प्रयोग है। इसमें उन खाद्य-वस्तुओं का परिवर्जन किया जाता है, जो स्वादिष्ट होती हैं, जिह्या को तृप्ति प्रदान करने वाली होती हैं। इसके अनेक प्रकार हैं। जैसे–
आयंबिल– दिन में एक समय, एक बार, केवल एक धान्य के अतिरिक्त कुछ नहीं खाना। उसमें नमक, मसाले, घी आदि कुछ भी नहीं होना चाहिए।
निर्विगय– दिन में एक समय, एक बार से अधिक भोजन नहीं करना। भोजन में दूध, दही आदि सभी विकृतियों (गरिष्ठ पदार्थों) का परिहार करना। छाछ, रोटी, चने जैसे पदार्थों के अतिरिक्त सरस पदार्थों का सेवन नहीं करना।
लवण-वर्जन– नमक और नमक-युक्त भोजन का परिवर्जन करना। ओवाइय में इस परित्याग के नौ प्रकार भी उपलब्ध हैं।
रस-परित्याग क्यों?
अध्यात्म-जगत् का मौलिक तत्त्व है इन्द्रियविजय। उसका एक प्रकार है- स्वाद-विजय अथवा रसनेन्द्रिय-संयम। उसकी उपलब्धि के लिए रस-परित्याग का प्रयोग एक सशक्त साधन है। रसों का परित्याग कर रुक्ष और सादे भोजन के सेवन से अस्वाद का अभ्यास परिपक्व होता है। अधिक मात्रा में रस-सेवन से उन्माद बढ़ता है, विकार बढ़ता है, आलस्य बढ़ता है, स्वाध्याय आदि में अवरोध उत्पन्न होता है। इनसे बचने के लिए भी रस-परित्याग अपेक्षित है। उत्तराध्ययन और दशवैकालिक के सूक्त साधक के लिए दिशादर्शक हैं– रसापगामं न निसेवियव्या – ज्यादा रस का सेवन मत करो।
अभिक्खणं निव्विगई गओ य– बार-बार निर्विगय का अभ्यास करो।
वस्तु-परित्याग या आसक्ति-परित्याग
रस-परित्याग एक साधन है। उसका साध्य है- रसगत आसक्ति का त्याग। रस-परित्याग वस्तु-त्याग तक सीमित न रहकर रस (आसक्ति)– त्याग के रूप में परिणत हो, यह हमारा लक्ष्य होना चाहिए। यदि पदार्थपरक आसक्ति न टूटे तो केवल पदार्थ का त्याग मेरी विनम्र विचारणा के अनुसार द्रव्य रस–परित्याग है। आसक्ति छूटने पर वह 'भाव रस-परित्याग' कहलाएगा।
इस सन्दर्भ में श्रीमद् भगवद्गीता का श्लोक मननीय है-
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः। 
रसवरर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ।।
इन्द्रिय-विषयों का भोग छोड़ देने वाले व्यक्ति के विषय निवृत्त हो जाते हैं। किन्तु रस (आसक्ति) नहीं। तद्गत आसक्ति तब छूटती है, जब परम की अनुभूति प्राप्त होती है। रस-परित्याग का प्रयोग साधना और स्वास्थ्य, दोनों दृष्टियों से उपयोगी हो सकता है।
कायसिद्धि का प्रयोग
शरीर हमारा अनादिकालीन साथी है। जितना सहचरत्व शरीर निभाता है उतना वाणी, मन और श्वास भी नहीं निभाते। आज तक एक क्षण भी ऐसा नहीं बीता, जब संसारी आत्माओं के साथ शरीर कभी नहीं रहा हो। यद्यपि प्राणी संसारी अवस्था में कथंचित् अशरीर भी बनता है, पर सम्पूर्णतया नहीं। गौतम ने भगवान महावीर से प्रश्न किया भन्ते! गर्भ में उत्पन्न होता हुआ जीव क्या सशरीर उत्पन्न होता है अथवा अशरीर उत्पन्न होता है? भगवान ने उत्तर दिया गौतम! वह सशरीर भी उत्पन्न होता है और अशरीर भी उत्पन्न होता है। औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीर की अपेक्षा वह अशरीर उत्पन्न होता है और तैजस तथा कार्मण शरीर की अपेक्षा वह सशरीर उत्पन्न होता है। (क्रमश:)