भय की तमिस्त्रा : अभय  का आलोक

स्वाध्याय

भय की तमिस्त्रा : अभय का आलोक

महावीर ने कहा, 'मैं गांव में जा सकता हूं। पर इस सुनहले अवसर को छोड़कर मैं गांव में कैसे जाऊं? स्वतंत्रता की साधना का पहला चरण है अभय। ध्यान-काल में इस सत्य का मुझे साक्षात हुआ है। मैं अभय के शिखर पर आरोहण का अभियान प्रारम्भ कर चुका हूं। यह कसौटी का समय है। इससे पीछे हटना क्या उचित होगा?' लोगों के अपने तर्क थे और महावीर का अपना तर्क था। उनकी वेधक शक्ति अधिक थी, अतः उससे निरुत्तर हो सब लोग गांव में चले गए। महावीर यक्ष के मन्दिर में ध्यानलीन होकर खड़े हैं। जैसे-जैसे समय बीत रहा है, वैसे-वैसे रात की श्यामलता, नीरवता और उनके मन की एकाग्रता गहरी होती जा रही है।
अकस्मात् अट्टहास हुआ। वातावरण की नीरवता भंग हो गई। सारा जंगल कांप उठा। महावीर पर उसका कोई प्रभाव नहीं हुआ। कुछ क्षणों के बाद एक हाथी आया। उसने अपने दांतों से महावीर पर तीखे प्रहार किए पर वह महावीर को विचलित नहीं कर सका। हाथी के अदृश्य होते ही एक विषधर सर्प सामने आ गया। उसकी भयंकर फुफकार से भयभीत होकर पेड़ पर बैठी चिड़ियां चहकने लग गई। उसने महावीर को काटा पर उनके मन का एक कोना भी प्रकंपित नहीं हुआ। यक्ष का आवेश शांत हो गया। महावीर के जीवन में यह घटना घटित हुई या नहीं, यक्ष ने उन्हें कष्ट दिया या नहीं, इन विकल्पों का समाधान आप मांग सकते हैं, पर मैं इनका क्या समाधान दूं? जिन ग्रन्थों के आधार पर मैं इन्हें लिख रहा हूं, वे आपके सामने हैं। यदि आप अन्तर-जगत् में मेरे साथ चलें तो मैं इनका समाधान दे सकता हूं।
अब हम अन्तर-जगत के प्रथम द्वार में प्रवेश कर रहे हैं। यहां विचार ही विचार हैं। अभी हम प्रवेश कर ही रहे हैं, इसलिए हमें इनकी भीड़ का सामना करना होगा। जैसे-जैसे हम आगे बढ़ेंगे, इनकी भीड़ कम होती चली जायेगी। दूसरे द्वार के निकट पहुंचते-पहुंचते वह समाप्त हो जाएगी। अब हम दूसरे द्वार में प्रवेश कर रहे हैं। यहां हमें सपनों की संकरी गलियों में से गुजरना होगा। आगे चलकर हम एक राजपथ पर पहुंच जाएंगे। अब हम तीसरे द्वार में प्रवेश कर रहे हैं। ओह! कितनी भयानक घाटियां। कितने बीहड़ जंगल! ये सामने खड़े हैं भूत और प्रेत। ये जंगली जानवर मारने को आ रहे हैं। ये अजगर, ये विषधर और ये बिच्छू! कितना घोर अन्धकार! हृदय को चीरने वाला अट्टहास! भयंकर चीत्कारें! कितना डरावना है यह लोक! कितनी खतरनाक है यह मंजिल!
सामने जो दीख रहा है, वह चौथा प्रवेश-द्वार है। वहां प्रकाश ही प्रकाश है, सब कुछ दिव्य ही दिव्य है। उसमें प्रवेश पाने वाला उस मंजिल पर पहुंच जाता है, जहां पहुंचने पर अन्यत्र कहीं पहुंचना शेष नहीं रहता। किन्तु इन खतरनाक घाटियों को पार किए बिना इन भूत-प्रेतों और जंगली जानवरों का सामना किए बिना कोई भी नहीं पहुंच पाता।
ये द्वार और कुछ नहीं है। हमारे मन की चंचलता ही द्वार है। उनका खुलना और कुछ नहीं है, हमारे मन की एकाग्रता ही उनका खुलना है। ये विचार और स्वप्न और कुछ नहीं हैं। हमारे संस्कारों को बाहर फेंकना ही विचार और स्वप्न हैं। ये भूत-प्रेत और जंगली जानवर और कुछ नहीं हैं। हमारे चिरकाल से अर्जित, छिपे हुए संस्कार का उच्छान ही भूत-प्रेत और जंगली जानवर हैं। भगवान महावीर के पार्श्व में होने वाले अट्टहास, हाथी और विषधर उन्हीं के द्वारा प्रताड़ित संस्कारों के प्रतिबिम्ब हैं। वे उन खतरनाक घाटियों को एक-एक कर पार कर रहे हैं। आत्म-दर्शन या सत्य का साक्षात्कार करने से पूर्व प्रत्येक साधक को ये घाटियां पार करनी होती हैं। भगवान बुद्ध ने भी इन घाटियों को पार किया था। वे वैशाखी पूर्णिमा को ध्यान कर रहे थे। उन्हें कुछ अशांति का अनुभव हुआ। उस समय उन्होंने संकल्प किया, 'मैं आज बोधि प्राप्त किए बिना इस आसन से नहीं उठूंगा।' जैसे-जैसे उनकी एकाग्रता आगे बढ़ी, वैसे-वैसे उनके सामने भयानक आकृतियां उभरने लगीं-जंगली जानवर, अजगर और राक्षस। इन आकृतियों ने बुद्ध को काफी कष्ट दिया। उनकी धृति अविचल रही, मन शांत हुआ। उन्हें बोधि प्राप्त हो गई।