कैसे लिखूं तेरे गुण प्रभुवर ?
संस्कृत साहित्य की एक प्रसिद्ध सूक्ति के अनुसार रमणीय वही है जो नया और प्राणवान है। आचार्य श्री महाश्रमण जी अपने जीवन के बासठ वसन्त पार कर रहे हैं, किंतु उनके मानस में आज भी ऋतुराज की सुंदरता और सरसता का दर्शन होता है। उनमें हर समय नई कल्पना और नए उत्साह के सुमन खिलते रहते हैं। अतीत के प्रति गहरी आस्था होते हुए भी उनकी आंखों में भविष्य का विश्वास और उल्लास मुखर होता रहता है।
आचार्यश्री महाश्रमण जी सरोवर नहीं, भागीरथी की बहती धारा हैं। उनके हर श्वास में प्रगति का स्वर प्रस्फुटित होता रहता है। जड़ता और स्थिति पालकता उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं है। निश्चित लक्ष्य पर पहुंचने के लिए उन्होंने भारी पुरुषार्थ किया है, उनके चरण हर समय आगे बढ़ते रहे हैं और उनकी साहसिक यात्राएं सदा सफल रही हैं।
आचार्यश्री महाश्रमण जी परिस्थितिवाद के उपासक नहीं है। उन्हें व्यक्ति की असीम शक्ति पर दृढ़ विश्वास है। वे निमित्त की अपेक्षा उपादान को अधिक महत्व देते हैं। उनके चिंतन के अनुसार व्यक्ति ही परिस्थितियों का निर्माता है। यदि शक्ति जागृत हो तथा लक्ष्य पवित्र हो तो कठिन से कठिन परिस्थिति अनुकूल बन जाती है व विकास में सहयोगी बन जाती है। यदि व्यक्ति स्वयं ही दुर्बल हो तथा उद्देश्य विकृत हो तो सुखद निमित्त भी दुखद बन सकता है। हवा के झोंके से दीपक की टिमटिमाती लौ बुझ जाती है किंतु दावानल ओर अधिक प्रज्वलित हो जाता है।
आचार्य श्री महाश्रमण जी आत्मविश्वास को महान संबल मानते हैं। फलत: कठिन से कठिन परिस्थितियां भी उनके लिए वरदान सिद्ध हो गई।
आचार्यश्री महाश्रमण जी का लक्ष्य बूंद नहीं, महासागर है। रश्मि नहीं सूरज है। इस दीक्षा कल्याण महोत्सव, 63वें जन्मदिवस और 15वें पदाभिषेक दिवस के पुनीत अवसरों पर हम यह आशा करते हैं कि आचार्यवर के जीवन की बहती हुई निर्मल धारा विश्व के मंच से संकीर्णता का कलुष धोकर कोटि–कोटि लोगों के मानस को मैत्री और समता की भावना से आप्लावित करेगी। आचार्यवर की महिमा अपरंपार है उसे अल्प शब्दों में लिखना कठिन है।
सब धरती कागज करो, कलम करो वनराई।
सब समुद्र स्याही करो, गुरु गुण लिख्या न जाई।।