संयम के महासुमेरू आचार्यश्री महाश्रमण
साधना के क्षेत्र में गतिशील मानसवाला साधक संयम के राजमार्ग पर प्रस्थित होने के संकल्प से संकल्पित होता है। ऐसा ही संकल्प आचार्यश्री महाश्रमणजी ने अपने जीवन में समझ आने के उदयकाल में ही ले लिया था। कितना सौभाग्यशाली क्षण रहा होगा आचार्यश्री महाश्रमणजी के जीवनकाल का, जब उन्होंने साधु बनने का पक्का निर्णय किया था। न केवल आचार्यश्री महाश्रमणजी के लिए वह पल भाग्यशाली था किंतु मैं तो यह कहूंगी सम्पूर्ण तेरापंथ धर्मसंघ, सम्पूर्ण जैन समाज एवं सम्पूर्ण मानवजाति के भाग्योदय का वह पल था। एक विराट् चेतना ने संयम के विराट हिमगिरी पर आरोहण करने का विराट संकल्प विराट उत्साह से किया था। उस विराट संकल्प की विराट फलश्रुति हमें आचार्यश्री महाश्रमणजी के रूप में उपलब्ध है। इस मुकाम तक पहुंचने में मुनि मुदित ने अध्यात्म के कितने अनछुए शिखरों का आरोहण किया होगा।
मुनि मुदित प्रारंभ से ही एक विनम्र, आचारवान एवं प्रतिभा सम्पन्न साधक रहे हैं। अपनी विनम्रता एवं आचार कुशलता से मुनि जीवन से ही ये अध्यात्म के नव्य-भव्य आलेख लिखते रहे हैं। अपनी इन्द्रिय विजय की विशिष्ट साधना से तत्कालीन साधु-समाज में उन्होंने एक गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया था। विद्या विनम्रता, विवेक एवं आचार से सुशोभित होती है, आचार्यश्री महाश्रमणजी के जीवन में मुनि अवस्था से ही इस चतुष्ट्यी का समवाय रहा है।
आपश्री ने अपनी इन विरल विशेषताओं के कारण परम पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी के दिल में अपनी विशिष्ट पहचान बना ली थी। आपकी उत्कृष्ट इन्द्रिय विजय की साधना से गुरुदेव तुलसी अत्यन्त प्रभावित एवं आश्वस्त थे। इस तथ्य को आपश्री के मुनि जीवन के प्रारम्भिक काल में घटित घटना से अच्छी तरह समझा जा सकता है।
परमपूज्य आचार्यश्री तुलसी नाथद्वारा (मेवाड़) में विराज रहे थे और मुनि मुदित उस समय जैन विश्व भारती लाडनूं में विराजित थे। संभवतः यह सन् 1983 की बात है। परमार्थिक शिक्षण संस्था की मुमुक्षु बहिनों का भी प्रवास लाडनूं में था, आज भी वहीं है। संस्था में बहिनों की शिक्षण-प्रशिक्षण की अच्छी व्यवस्था है। सन् 1983 तक मुमुक्षु बहिनों की शिक्षा, अध्ययन आदि की व्यवस्था प्रायः बाहरी प्राध्यापकों के माध्यम से संचालित थी। संस्था के संयोजक मुमुक्षु बहिनों के अध्ययन के प्रति विशेष जागरूक रहते थे। सन् 1983 के फाइनल ईयर की मुमुक्षु बहिनों का कालु-कौमुदी पढ़ाने वाले पंडित जी के घर चले जाने के कारण कालु-कौमुदी का पाठ्यक्रम पूर्ण नहीं हुआ था। फाइनल परीक्षा नजदीक आ रही थी। बहिनों ने संयोजक से कहा- संस्कृत व्याकरण का हमारा पाठ्यक्रम अवशिष्ट है उसे पढ़ाने वाला भी अभी कोई नहीं है अतः व्याकरण के उस अपठित कोर्स को हमारी परीक्षा से हटा दिया जाए क्योंकि बिना पढ़ाए तो कालु-कौमुदी समझ में ही नहीं आती है। संयोजक भैंरूलालजी बरड़िया ने कहा- पाठ्यक्रम से व्याकरण का यह पाेर्शन नहीं हटेगा। पढ़ाने के संदर्भ में हम गुरुदेव से निवेदन करेंगे। मर्यादा-महोत्सव पर संस्था की बहिनें नाथद्वारा आई हुई थी। संयोजक ने गुरुदेव को निवेदन किया। गुरुदेव ने तत्काल ध्यान दिया और फरमाया जैन विश्व भारती में मुनि मुदित है, वह संस्था में जाकर मुमुक्षु बहिनों को कालु-कौमुदी पढ़ा देगा। हम उसे संवाद भेज देते हैं।
एक युवा संत को इस प्रकार मुमुक्षु बहिनों को पढ़ाने का निर्देश देना एक आश्चर्यकारी घटना थी। संघीय व्यवस्था के अनुसार संत सामान्यतः बहिनों को अध्यापन नहीं करवा सकते थे। आचार्यश्री तुलसी का इक्कीस वर्षीय मुनि मुदित पर इतना विश्वास था कि उन्होंने अध्यापन का यह निर्देश मुनि मुदित को दिया। समवयस्क मुमुक्षु बहिनों के मध्य जाकर मुनिप्रवर ने व्याकरण का अध्यापन किया। सौभाग्य से मैं भी उस कक्षा की विद्यार्थी थी। मुनि प्रवर कुछ समय के लिए प्रतिदिन जैन विश्व भारती से सातवीं पट्टी में स्थित पारमार्थिक शिक्षण संस्था में हमें पढ़ाने के लिए पधारते थे। मुनि प्रवर का उस समय भी दृष्टि संयम इतना सधा हुआ था जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। अध्यापन के अतिरिक्त किसी भी प्रकार का वार्तालाप नहीं। पधारना, पढ़ाना एवं पुनः पधार जाना, बस यही क्रम रहता था। सरलता एवं सहजता से आपने हमें अध्यापन करवा दिया। इस घटना को आपकी जितेन्द्रियता के उत्कृष्ट उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है।
इस बार पूना प्रवास के समय श्रीचरणों की उपासना के समय मैंने इस घटना का उल्लेख करते हुए निवेदन किया था। पूज्य प्रवर! उस समय आपश्री को गुरुदेव श्री तुलसी के द्वारा हम समवयस्क बहिनों को पढ़ाने के लिए भेजना कोई साधारण बात नहीं थी। तब आचार्य प्रवर ने भी स्वयं फरमाया- ‘वह अत्यन्त असाधारण घटना थी।’ यह असाधारण घटना तेरापंथ के इतिहास की विरल घटना है। युवा अवस्था में मुनि मुदित की जितेन्द्रियता का यह जागृत उदाहरण है। यह घटना उनके तेजस्वी भविष्य का स्पष्ट संकेत है। मुनि मुदित से महाश्रमण मुनि मुदित कुमार एवं महाश्रमण से आचार्य महाश्रमण तक की यात्रा आपकी अति विशिष्ट संयम-साधना की यात्रा है। हम विनतभाव से प्रणत हैं आपके उत्कृष्ट संयम आराधना के प्रति। हे संयम के महासुमेरू! आपका दीक्षा कल्याण वर्ष हम सबमें संयम की चेतना को जागृत करता रहे। अध्यात्म के भाव को पुष्ट करता रहे। आपके स्वस्थ, निरामय दीर्घ संयमी जीवन की मंगलकामना करते हैं।