उपासना

स्वाध्याय

उपासना

(भाग - एक)

आचार्य महाश्रमण

आचार्य श्याम (प्रथम कालकाचार्य)

जैन इतिहास में कालकाचार्य नाम के कई आचार्य हुए हैं। तीन व चार आचार्य तो काफी प्रसिद्ध हैं।
प्रथम कालकाचार्य श्यामाचार्य नाम से अधिक प्रसिद्ध हैं। ये द्रव्यानुयोग के विशिष्ट व्याख्याता थे। इनका निगोद संबंधी ज्ञान तलस्पर्शी था। प्रज्ञापना सूत्र की रचना इनकी गहन विद्वत्ता का प्रमाण है।
एक बार महाविदेह क्षेत्र में सीमन्धर स्वामी से सूक्ष्म निगोद की व्याख्या सौधर्मेन्द्र ने सुनी और प्रश्‍न किया‘भगवन्! भरत क्षेत्र में भी निगोद संबंधी इस प्रकार की व्याख्या करने वाले कोई मुनि, श्रमण, उपाध्याय या आचार्य हैं?’
सौधर्मेन्द्र के प्रश्‍न का समाधान करते हुए सीमन्धर स्वामी ने आचार्य श्याम के नाम का उल्लेख किया। सौधर्मेन्द्र वृद्ध ब्राह्मण के रूप में आचार्य श्याम के पास आया। उनके ज्ञान का परीक्षण करने के लिए उसने अपना हाथ उनके सामने किया। हस्त-रेखा के आधार पर आचार्य श्याम ने जाना‘नवागन्तुक ब्राह्मण की आयु पल्योपम से ऊपर है।’ आचार्य श्याम ने उसकी ओर गंभीर द‍ृष्टि से देखा और कहा‘तुम मानव नहीं, देव हो।’ सौधर्मेन्द्र को आचार्य श्याम के इस उत्तर से संतोष मिला एवं निगोद के विषय में विस्तार से जानना चाहा। आचार्य श्याम ने निगोद का सांगोपांग विवेचन कर इंद्र को आश्‍चर्याभिभूत कर दिया। अपनी यात्रा का रहस्य उद्घाटित करते हुए सौधर्मेन्द्र ने कहा‘मैंने सीमन्धर स्वामी से जैसा विवेचन निगोद के विषय में सुना था, वैसा ही विवेचन आपसे सुनकर मैं अत्यंत प्रभावित हुआ हूँ।’
देवों की रूप संपदा को देखकर कोई शिष्य श्रमण निदान न कर ले, इस हेतु भिक्षाचर्या में प्रवृत्त मुनियों के आगमन से पूर्व ही सौधर्मेन्द्र श्यामाचार्य की प्रशंसा करता हुआ जाने लगा। तब श्यामाचार्य अपने शिष्यों को सिद्धांतों के प्रति अधिक आस्थाशील बनाने की द‍ृष्टि से बोले‘सौधर्मेन्द्र! देवागमन की बात मेरे शिष्य बिना किसी सांकेतिक चि के कैसे जान पाएँगे?’ आचार्य देव के संकेत का अनुशीलन करते हुए सौधर्मेन्द्र ने उपाश्रय का द्वार पूर्व से पश्‍चिमाभिमुख कर दिया। आचार्य श्याम के शिष्य गोचरी करके लौटे। वे इंद्रागमन से लेकर द्वार के स्थानांतरण तक की सारी घटना सुनकर विस्मयाभिभूत हो गए।
इंद्रागमन की यह घटना प्रभावक चरित्र के कालकसूरि प्रबंध में आचार्य कालक के साथ एवं विशेषावश्यक भाष्य, आवश्यक चूर्णि आदि ग्रंथों में आचार्य आर्यरक्षित के साथ भी प्रयुक्‍त हैं।
इनका आचार्य काल वी0नि0 235 माना जाता है।

आचार्य कालक (द्वितीय)

कालककुमार धारा नगरी के स्वामी वैरसिंह के सुपुत्र थे। इनकी माता का नाम था सुरसुंदरी। गुणाकर मुनि के उपदेश से प्रभावित होकर अपनी बहन सरस्वती के साथ संयम व्रत स्वीकार किया। गुणाकर सूरि ने इन्हें सुयोग्य समझकर आचार्य पद पर आरूढ़ किया। एकदा आचार्य कालक उज्जयिनी के उपवन में विराजमान थे। आचार्य कालक की बहन आर्या सरस्वती साध्वी-समुदाय के साथ आचार्य की वंदना करने उपवन की ओर जा रही थी। राजमहल में बैठे राजा गर्दभिल्ल ने साध्वी सरस्वती को जाते देखा। अपना आपा भूलकर मुग्ध हो उठा। कामान्ध बना। तत्काल साध्वी को महलों में बुला लिया। सरस्वती रक्षा की पुकार करने लगी पर कौन सुने। आचार्य कालक ने जब यह दु:संवाद सुना तब राजमहल में पहुँचकर गर्दभिल्ल को बहुत समझाया। पर वह हठी कब मानने वाला था। प्रत्युत कुपित होकर अपने सेवकों से आचार्य को बाहर निकालने के लिए कहा। आचार्य को क्रोध आना सहज था। गर्दभिल्ल को राज्यच्युत करने की घोषणा करके राज्यसभा से निकल गए। आर्या सरस्वती का कहीं राजा अहित न कर दे यह सोचकर कुछ दिन तो विक्षिप्त से बने राजपथ पर घूमते रहे। जब राजा को विश्‍वास हो गया कि ‘कालक’ वास्तव में ही विक्षिप्त हो गए हैं तब मौका देखकर वहाँ से चलकर भड़ौंच आ गए।
(क्रमश:)