श्रमण महावीर

स्वाध्याय

श्रमण महावीर

यह परमात्मपद तक पहुंचने की आध्यात्मिक प्रक्रिया है। अतः कोई भी महान् साधक इसका अतिक्रमण नहीं कर पाता।
२. यह साधना का दूसरा वर्ष है। भगवान महावीर दक्षिण वाचाला से उत्तर वाचाला की ओर जा रहे हैं। उन्होंने कनकखल आश्रम के भीतर से जाने वाले मार्ग को चुना है। वे कुछ आगे बढ़े। रास्ते में ग्वाल मिले। उन्होंने कहा, 'भंते! इधर से मत जाइए।'
'क्या यह मार्ग उत्तर वाचाला की ओर नहीं जाता?'
'भन्ते! जाता है।'
'क्या यह बाहर से जाने वाले मार्ग से सीधा नहीं है?'
'भन्ते! सीधा है।'
'फिर! इस मार्ग से क्यों नहीं जाना चाहिए मुझे?'
'भन्ते! यह निरापद नहीं है।'
'किसका डर है इस मार्ग में?'
'भन्ते! इस मार्ग के पास चंडकौशिक नाम का सांप रहता है। वह दृष्टिविष है। जो आदमी उसकी दृष्टि के सामने आ जाता है, वह भस्म हो जाता है। कृपया आप वापस चलिए।'
महावीर का मन पुलकित हो गया। वे अभय और मैत्री दोनों की कसौटी पर अपने को कसना चाहते थे। यह अवसर सहज ही उनके हाथ आ गया। उन्होंने साधक की भाषा में सोचा, मूढ़ आत्मा जिसके प्रति विश्वस्त है उससे अधिक दूसरा कोई भय का स्थान नहीं है। वह जिससे भयभीत है, उससे अधिक दूसरा कोई अभय का स्थान नहीं है।
बेचारे ग्वाले देखते ही रह गये। महावीर के चरण आगे बढ़ गये।
महावीर का आज का ध्यान-स्थल देवालय का मंडप है। वही मंडप विषधर चंडकौशिक की क्रीड़ा-स्थली है। भगवान् मंडप के मध्य में कायोत्सर्ग की मुद्रा में खड़े हैं। दोनों हाथ नीचे झूल रहे हैं। उनकी अंगुलियां घुटनों को छू रही हैं। एडियां सटी हुई हैं। पंजों के बीच में चार अंगुल का अन्तर है। अनिमेष चक्षु नासाग्र पर टिके हुए हैं। शरीर शिथिल, वाणी मौन, मंद श्वास और निर्विचार मन। भगवान ध्यानकोष्ठ में पूर्णतः प्रवेश पा चुके हैं। बाह्य जगत् और इन्द्रिय-संवेदनाओं से उनका सम्बन्ध विच्छिन्न हो चुका है। अब उनका विहार अन्तर-जगत् में हो रहा है। वह जगत् ईर्ष्या, विषाद, शोक, भय आदि मानसिक दुःखों की सम्बाधा और सर्दी, गर्मी, विष, शस्त्र आदि शारीरिक दुःखों की संवेदना से अतीत है।
चंडकौशिक जंगल में घूमकर देवालय में आया। मंडप में प्रवेश करते ही उसने भगवान को देखा। मंडप वर्षों से निर्जन हो चुका था। उसके परिपार्श्व में भी पैर रखने में हर आदमी सकुचाता था। फिर उसके भीतर आने और खड़े रहने का प्रश्न ही क्या? चंडकौशिक ने आज पहली बार अपने क्रीड़ास्थल में किसी मनुष्य को देखा। वह क्षणभर स्तब्ध रह गया। दूसरे ही क्षण उसका फन उठ गया। दृष्टि विष से व्याप्त हो गई। भयंकर फुफकार के साथ उसने महावीर को देखा। तीसरे क्षण उसने खड़े व्यक्ति के गिर जाने की कल्पना के साथ उस ओर देखा। वह देखता ही रह गया कि वह व्यक्ति अभी भी खड़ा है और वैसे ही खड़ा है जैसे पहले खड़ा था। उसकी विफलता ने उसमें दुगुना क्रोध भर दिया। वह कुछ पीछे हटा। फिर वेग के साथ आगे आया और विषसंकुल दृष्टि से भगवान को देखा। भगवान पर उसका कोई असर नहीं हुआ। उसने तीसरी बार सूर्य के सामने देख दृष्टि को विष से भरा और वह भगवान पर डाली। परिणाम कुछ भी नहीं हुआ। भगवान अब भी पर्वत की भांति अप्रकंप भाव से खड़े हैं।
चडकौशिक का क्रोध सीमा पार कर गया। वह भयंकर फुफकार के साथ आगे सरका। आटोप से उछलता हुआ फन, कोप से उफनता हुआ शरीर, विष उगलती हुई आखें, असि-फलक की भांति चमचमाती जीभ इन सबकी ऐसी समन्विति हुई कि रौद्र रस साकार हो गया।