गुण गाथा को लिखूं कहां से
नहीं समझ में आता मुझको, गुण गाथा को लिखूं कहां से।
गुरु महाश्रमण का जीवन है किताब, इसको मैं पढूं कहां से।
प्रयास कर रही हूं गुरु का, लिखने को यह पुण्य चरित्र।
मेरा भी कुछ ज्ञान बढ़ेगा, होगा जीवन ज्ञान पवित्र।।
वैशाख शुक्ला नवमी को, सरदारशहर में दिव्य प्रकाश।
जन्म हुआ जैसे मोहन का, खुशियों से गूंजा आकाश।
नेमा मां के आंगन में, बजने लगी शहनाई थी।
झुमरमल पिता ने देखो, बांटी खूब बधाई थी।।
जो संस्कार मिले बचपन में, पाया जीवन में विस्तार।
मां के संरक्षण में रहकर, जागे भीतर के संस्कार।
12 वर्ष की अल्पायु में, बदली जीवन की पतवार।
मंत्री मुनि सुमेरमल जी द्वारा, संयम व्रत को कर स्वीकार।।
गुरु तुलसी की अनहद कृपा, महाश्रमण पद है पाया।
सुदूर क्षेत्रों की यात्रा कर, गण सुयश देखो खूब फैलाया।
श्रद्धा, सेवा और समर्पण से, जीवन को गतिशील बनाया।
गंगाशहर की पुण्य धरा पर, युवाचार्य का स्थान पाया।।
सरदारशहर में आकस्मिक ही, महाप्रज्ञ महाप्रयाण हुआ ।
महाप्रज्ञ पट्टधर कहलाए, चारों ओर गुणगान हुआ।
सब कुछ पाकर सब कुछ त्यागा, तुमको कुछ न भाया था।
लाडनूं में शासन माता से 'युगप्रधान' अवार्ड पाया था।।
रच दिए इतिहास अनेकों, किस-किस को बतलाऐंगे।
दिल्ली का वह दृश्य निराला, उसको भूल न पायेंगे।
उपलब्धियां जो पाई आपने, जन्म-जन्म तक गायेंगे।
आपश्री का व्यक्तित्व अलौकिक, इसको लिख न पायेंगे।।