दायित्व है कर्तृत्व का विस्तार
विश्व क्षितिज पर ऐसे अनेक व्यक्तित्व उभर कर आए हैं, जिन्होंने अपने भीतर व बाहर के बीच तादात्म्य का तार साधा है। इस तादात्म्य से उनका अस्तित्व एक काया में सिमट कर नहीं रह जाता, विस्तृत हो जाता है। व्यक्ति के कर्तृत्व की गूंज समष्टि में प्रतिध्वनित होने लगती है। अनेक ऐसे व्यक्तित्व हैं जो अस्तित्व विस्तार से संपर्क साध चुके हैं। आत्म-जागरण की दिशा में समर्पित उनका अस्तित्व प्राणीमात्र को आत्मोत्थान का दर्शन दे रहा है। उनमें एक नाम है आचार्य महाश्रमणजी का।
जिसका कर्तृत्व व्यापक होता है उसे ही व्यापक का दायित्व प्रदान किया जाता है। दायित्व के सम्यक् बोध एवं निर्वहन में कर्तृत्व की महनीय भूमिका रहती है। किसी भी व्यक्ति को दायित्व सौंपे जाने से पूर्व उसकी अर्हताओं पर विश्वास होना आवश्यक है। आचार्य महाप्रज्ञजी को विश्वास था कि मुनि मुदित तेरापंथ की बागडोर संभालने में सक्षम हैं। इनमें अध्यात्मनिष्ठा, आचारनिष्ठा और कर्तव्यनिष्ठा है। इस विश्वास की परिणति थी कि आचार्य महाप्रज्ञ ने दायित्व की चादर महाश्रमण मुनि मुदित को सौंपी और युवाचार्य महाश्रमण के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया।
आचार्यश्री तुलसी और आचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने आचार्य महाश्रमणजी की कर्तृत्वशक्ति का मूल्यांकन किया। धीरे-धीरे उनके दायित्वों का क्षितिज विस्तृत होता चला गया। योग्य शिष्य से गरिमामय आचार्यपद तक की यात्रा में उनका कर्तृत्व उत्तरोत्तर निखरता गया। कर्तृत्व को निखारने वाला घटक तत्त्व है व्यक्ति की अपनी गुणात्मकता। आचार्य महाश्रमणजी का जीवन अनेक विशिष्ट गुणों का समवाय है। संयमनिष्ठा, आज्ञानिष्ठा, नियमनिष्ठा, न्यायनिष्ठा, श्रमनिष्ठा और सेवानिष्ठा के साथ-साथ विनम्रता, प्रसन्नता, सहिष्णुता आदि ऐसे गुण हैं जो आपके व्यक्तित्व में चार चांद लगाने वाले हैं। यही वजह है कि आचार्यवर दायित्व का पूरी जागरूकता के साथ निर्वहन कर रहे हैं। दायित्व का अनुभव करने वाला व्यक्ति आज्ञानिष्ठ होता है। जो व्यक्ति आज्ञा के प्रति पूर्णरूपेण समर्पित है, वह निर्वाण को प्राप्त करता है। व्याख्या साहित्य में एक श्लोक उल्लिखित है-
गुरु आणाए मुक्खो गुरुप्पसाओ उ अट्ठसिद्धिओ।
गुरुभत्तीए विज्जासाफल्लं होइ निव्वाणं॥
गुरु आज्ञा में रहने वाला शिष्य दुःख से मुक्त हो सकता है, गुरु के अनुग्रह से अष्ट सिद्धियां हस्तगत कर सकता है, गुरु भक्ति से ज्ञान में सफलता प्राप्त कर सकता है और निर्वाण को भी प्राप्त कर सकता है। निर्वाण की अदम्य अभीप्सा रखने वाले आचार्य महाश्रमणजी अपनी साधना के प्रति भी पूर्ण समर्पित हैं। पदयात्रा में भी उनकी साधना का क्रम अनवरत चलता रहता है। नित्यक्रम जब तक पूरा नहीं होता, प्रातराश नहीं करते हैं। यह क्रम मुनि अवस्था में और युवाचार्य अवस्था में भी अनवरत चलता रहा है। कभी-कभी लम्बे विहारों के कारण, श्रावकों के घरों का स्पर्श करने में अथवा अन्य कोई विशेष कार्य सामने आ जाने पर साधना में व्यवधान भी आते हैं, पर आचार्य महाश्रमणजी का संकल्प फौलादी हैं, वे जो सोचते हैं, उसे क्रियान्वित भी करते हैं, सिर्फ गुरु का निर्देश ही इसमें अपवाद रहता है। एक प्रसंग लुधियाना का है।
परमपूज्य आचार्य महाप्रज्ञजी पंजाब में विहरण करते हुए लुधियाना पधारे। नित्यक्रम के अनुसार गंतव्य स्थल पर पहुंचने के बाद प्रातराश किया, कुछ क्षणों के लिए विश्राम किया, फिर मुझे (साध्वी विश्रुतविभा) पूछा- ‘महाश्रमण आज पंडाल में नहीं गए?’ मैंने कहा- ‘नहीं,अभी तक तो नहीं पधारे।’ आचार्यश्री ने फरमाया ‘आज देरी कैसे हुई?’ आचार्यवर ने समणीजी को संकेत करते हुए कहा- ‘देखो, महाश्रमण क्या कर रहे हैं?’ अतिशीघ्र समणीजी ने युवाचार्यश्री के कक्ष में प्रवेश किया और देखा- ‘युवाचार्यश्री ध्यान कर रहे हैं और थोड़ी दूरी पर नाश्ते के लिए टेबल पर पात्रियां रखी हुई है। मुनि कुमारश्रमण जी सेवा में आसीन है।’ समणीजी ने सारा वृत्तान्त बताया। आचार्यश्री ने मुनि कुमारश्रमण जी को आहूत किया। वे तत्काल आचार्यवर के कक्ष में पहुंचे।
आचार्यश्री-‘अभी महाश्रमण क्या कर रहे हैं?’ मुनि कुमारश्रमणजी- ‘युवाचार्यश्री अभी जप करवा रहे हैं।’ आचार्यश्री- ‘आज व्याख्यान में मैं चला जाऊं?’ मुनि कुमारश्रमणजी- ‘नहीं, आचार्यवर नहीं पधारें। मैं युवाचार्यश्री को निवेदन कर देता हूं। आचार्यप्रवर फरमाएंगे तो नाश्ता करके व्याख्यान में पधार जाएंगे, अन्यथा नाश्ता यों ही पड़ा रहेगा!’ आचार्यश्री ‘ठीक है। महाश्रमण को कह दो-पहले नाश्ता करें, उसके बाद व्याख्यान में जाए।’ मुनि कुमारश्रमण जी ने आचार्यवर ने जो फरमाया, हुबहू निवेदन कर दिया। युवाचार्यश्री ने बिना किसी तर्क-वितर्क के प्रातराश किया और बाद में व्याख्यान में पधारे। इसे आज्ञानिष्ठा का अनुपम उदाहरण कहा जा सकता है। जहां गुरु की आज्ञा है, वहां अन्य सारे कार्य गौण हो जाते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि कालिदास का यह सूक्त 'आज्ञा गुरुणां ह्यविचारणीया' आचार्य महाश्रमणजी के जीवन में अक्षरशः घटित हो रहा है। एक बार स्वयं आचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने व्याख्यान में युवाचार्य महाश्रमणजी की आज्ञानिष्ठा का उल्लेख करते हुए फरमाया- 'हमसे कोई प्रश्न पूछे कि संघ में सबसे अधिक आज्ञाकारी कौन? तो मैं कहूंगा- युवाचार्य महाश्रमण। युवाचार्य के पद पर हैं, फिर भी कोई कार्य मेरी आज्ञा के बिना, मेरी दृष्टि के बिना नहीं करते।'
वर्तमान में भी आचार्यप्रवर अपनी साधना के प्रति पूर्णरूपेण जागरुक हैं। 18 अप्रैल 2024 का प्रसंग है। आचार्यप्रवर ने विहार के मध्य दो स्थानों पर आसीन होकर जप आदि का क्रम सम्पन्न किया। उनमें से पहला एक वृक्ष के आसपास खुला स्थान था तो दूसरा साकखेड़ में 'संत बाबूदेव महाराज मंदिर' का स्थान। आचार्यप्रवर ने जप आदि का नियमित क्रम सम्पन्न करने के पश्चात् ही उदक ग्रहण किया। इस अनुष्ठान के कारण गंतव्य स्थल पहुंचने में विलम्ब भी हो गया, पर अपने दैनन्दिन साधना के क्रम को गौण नहीं किया।
दायित्व उस व्यक्ति को सौंपा जाता है जो श्रमनिष्ठ होता है। निःसंदेह श्रमशील व्यक्ति अपने कार्यों में सफल होता है। वह पुरुषार्थ के द्वारा अपनी मंजिल को प्राप्त करता है। आचार्य महाश्रमणजी बचपन से ही पुरुषार्थी थे। उन्होंने हमेशा अपनी शक्ति का सही दिशा में उपयोग किया। आचार्य तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञजी के हृदय में उनका विशेष स्थान था। अनेक विशेषताओं के पुञ्ज मुनि मुदितकुमारजी को आचार्यश्री तुलसी ने 'महाश्रमण' पद से अलंकृत किया। आचार्य महाप्रज्ञजी ने उदयपुर चातुर्मास में कहा था-‘महाश्रमण धर्मसंघ के युवाचार्य हैं। तेरापंथ का युवाचार्य होना बड़े भाग्य की बात है। महाश्रमण युवाचार्य होने के साथ-साथ महाश्रमिक भी हैं।’ आचार्य महाप्रज्ञजी के मुखारविन्द से निःसृत ये शब्द युवाचार्य महाश्रमणजी की पुरुषार्थ की गाथा को अभिव्यंजित करने वाले हैं।
एक बार परमपूज्य आचार्य महाप्रज्ञजी बवानीखेड़ा (पंजाब) में प्रवास कर रहे थे। युवाचार्यश्री महाश्रमणजी व्याख्यान के पश्चात् अपने स्थान पर पधार रहे थे। साथ में मुमुक्षु बहिनें उच्च स्वर से गीत का संगान कर रही थी। उनकी मधुर ध्वनि को सुनकर आचार्य महाप्रज्ञ जी ने विनोद के लहजे में संतों को कहा-देखो, महाश्रमण बड़े ठाठबाट से आ रहे हैं। इतने में ही युवाचार्यप्रवर आचार्यवर के कक्ष में पधार गए। आचार्यवर ने युवाचार्यश्री को कहा-ऐसा लग रहा है मानो विहार करके आए हो। युवाचार्यवर आचार्यश्री के शब्दों का श्रवण कर मुस्कुराने लगे। आचार्यवर ने संतों की ओर दृष्टिपात करते हुए फरमाया- ‘जो श्रम करते हैं, उनका वर्धापन होता है। हमारा सूत्र है- श्रम करो सफल बनो।’
आचार्य महाश्रमणजी का जीवन पराक्रम की कहानी है। साधु-साध्वियों की सारणा-वारणा करना, प्रवचन करना, क्षेत्रों की सार-संभाल करना, जनता को प्रतिबोध देना, लोगों को दर्शन देना, उनकी समस्याओं का समाधान करना, ज्ञानामृत का वितरण करना, घरों का स्पर्श करना आदि विविध कार्यों में आचार्यवर अपने पुरुषार्थ का प्रस्फोटन कर रहे हैं। सफलता श्रम पर समर्पित होती है। अहिंसा यात्रा में हमने अनेक बार अनुभव किया कि परमपूज्य आचार्यवर के दरबार में कोई व्यक्ति अपनी भावना लेकर पहुंचे और वह खाली हाथ लौट जाए, संभव नहीं। लम्बा घुमाव लेकर और मौसम की प्रतिकूलता को सहन करके भी आचार्यप्रवर जब श्रावक-श्राविकाओं की भावना को पूरा करते हैं तो उन्हें अत्यधिक प्रसन्नता की अनुभूति होती है। आचार्यप्रवर संघर्ष से कभी डरे नहीं। जिन्होंने आपके संघर्ष को देखा है, वे ही आपकी सफलता की सही कीमत आंक सकते हैं।
अहिंसा यात्रा के दौरान आचार्यवर मेवाड़ की पथरीली भूमि पर यात्रायित थे। उस दिन का गंतव्य स्थल फरारा गांव कानादेव का गुड़ा से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। करुणा सागर आचार्यवर ने फरारा स्थित प्रवास तक पहुंचने से पूर्व दस कि.मी. का अतिरिक्त विहार किया। इसका कारण था फरारा से पांच कि.मी. की दूरी पर बसे हुए पीपराडा के श्रावकों की उत्कृष्ट भावना। महातपस्वी आचार्य महाश्रमणजी ने विहार की लम्बाई को गौण कर भक्ति से आपूरित श्रद्धालुओं की भावनाओं को पूरा किया। मात्र एक तेरापंथी परिवार को तृप्त करने हेतु आप पीपराडा पधारे। यह है आचार्य महाश्रमणजी की श्रमनिष्ठा का और संघनिष्ठा का उदाहरण। एक-एक परिवार को संभालने के लिए कहां से कहां पहुंच जाते हैं। इससे धर्मसंघ की नीवें गहरी होती हैं। पुरष्करावर्त मेघ की भांति जहां भी पधारते हैं, हजार वर्ष के लिए वह भूमि स्निग्ध हो जाती है। उस क्षेत्र के श्रावक श्रद्धा से आप्लावित होकर सदा-सदा के लिए संघभक्त बन जाते हैं। बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी आचार्य महाश्रमणजी अनेक प्रकार के कार्यों में संलग्न रहकर भी कभी क्लान्ति का अनुभव नहीं करते। उनके चेहरे पर हमेशा प्रसन्नता का ही दर्शन होता है।
जो शिष्य जागरूक होता है वह गुरुओं द्वारा प्रदत्त प्रत्येक दायित्व का निष्ठा से निर्वहन करता है। प्राकृत साहित्य में एक सूक्त आता है- 'सीसस्स हुंति सीसा न हुंति सीसा असीसस्स'- 'शिष्य के शिष्य होते हैं, अशिष्य के शिष्य नहीं होते।' जो अच्छा शिष्य होता है, वही अच्छा गुरु बन सकता है। आचार्य महाश्रमणजी ने एक अच्छे शिष्य की भूमिका का निर्वहन किया है। इसीलिए आप एक श्रेष्ठ गुरू के रूप में सुशोभित हो रहे हैं। वह शिष्य धन्य होता है जो गुरु के कार्यों को अंजाम देता है, गुरु के हृदय में अपना स्थान बनाने में सफल होता है। आचार्य महाश्रमणजी हमेशा गुरुओं द्वारा निर्दिष्ट कार्यों को पूरा करने के लिए जागरूक रहे हैं। इस अप्रमत्तता ने उनको विकास के उच्च सोपानों पर आरूढ़ किया है।
दायित्व का अनुभव करने वाला शिष्य किसी भी संघर्ष के समय जनता के आक्रोश को स्वयं सहन करता है, अपने गुरु को उससे दूर रखने का यत्न करता है। प्रसंग 2006, भिवानी चातुर्मास का है। युवाचार्यश्री महाश्रमणजी आचार्यवर के कक्ष में पधारे। आचार्यश्री ने पूछा- ‘अमुक व्यक्तियों को व्यवस्थाविशेष के बारे में संवाद भेज दिया?’ युवाचार्यश्री ने कहा- ‘नहीं, अभी तक नहीं भेजा।’ आचार्य महाप्रज्ञजी ने युवाचार्यवर को संदेश लिखवा दिया। फिर प्रश्न किया- ‘यह संदेश किसके नाम से भेजोगे?’ युवाचार्यश्री ने उत्तर दिया- ‘मेरे नाम से भेजूंगा। मैं इन सब कार्यों से आचार्यश्री को मुक्त रखना चाहता हूं।’ आचार्य महाप्रज्ञजी ने कहा- ‘हमारे हाथ में तो तलवार ही है, ढाल तो तुम्हारे पास ही है।’ युवाचार्यश्री ने निवेदन किया- ‘ढाल तो प्रहार से बचाने के लिए होती है। जनाक्रोश आएगा तो वह मेरी ओर होगा, आचार्यश्री की ओर नहीं।’ इस प्रसंग से आचार्यवर की गंभीरता का अंदाज लगाया जा सकता है।
आचार्य महाश्रमणजी ने अपने बाह्य एवं आन्तरिक व्यक्तित्व के आधार पर अपने कर्तृत्व को प्राणवान् बनाया है। प्राणवान् कर्तृत्व वाला व्यक्ति ही अपने दायित्व का सफलतापूर्वक निर्वाह कर सकता है। कहा जाता है-“श्रद्धा ज्ञान देती है। नम्रता मान देती है। योग्यता स्थान देती है। इन तीनों का योग होने पर दुनिया सम्मान देती है।” आचार्यश्री महाश्रमणजी का वर्धापन श्रद्धा, विनय और योग्यता का वर्धापन है। उनके आभामण्डल से विकीर्ण होने वाली रश्मियां संपूर्ण विश्व को नया आलोक प्रदान करें। आपके तेजोमय उपपात में आने वाला हर व्यक्ति अध्यात्म की दिशा में प्रस्थान के लिए संकल्पित हो, यही युग की अपेक्षा है।