महान् श्रामण्य का नाम है ‘महाश्रमण’

महान् श्रामण्य का नाम है ‘महाश्रमण’

स्वर्ग की सुधर्मा सभा में सुघोषा नामक एक घण्टा होता है। जिस समय सुघोषा घण्टा बजता है, उसी समय बत्तीस लाख विमानों के घण्टे बज उठते हैं। उन विमानों में रहने वाले देव एक पल में सावधान हो जाते हैं। एक आवाज उन सबको सतर्क कर देती है। आत्मा में भी एक वैराग्य रूपी सुघोषा घण्टा है। जब वह जागरण का नाद करता है तब मनुष्य राग से विराग की ओर, भोग से त्याग की ओर, बंधन से मुक्ति की ओर प्रस्थित होने के लिए उद्धत हो उठता है और वह जागृत पुरूष ‘पणया वीरा महावीहिं’ इस आगम उक्ति को चरितार्थ करता हुआ असि की धार पर चलने के सम्मान कठिन सन्यास पथ को अंगीकार कर लेता है।
आज से लगभग पचास वर्ष पूर्व वैशाख शुक्ला चतुर्दशी के दिन सरदारशहर के मेहरी वाले दुगड़ परिवार के लगभग बारह वर्षीय बालक मोहन ने केश और संक्लेश का त्याग करने हेतु इस कठोर अनगार पथ पर चरणन्यास किया था। दसवेआलियं सूत्र में मुनि के लिए कहा गया ‘जाए सद्धाए निक्खंतो पर्यायट्ठाणमुत्तमं, तमेव अणुपालेज्जा गुणे आयरिए सम्मए।’ अर्थात् जिस श्रद्धा से उत्तम प्रवज्या के लिए घर को छोड़ा, संयम के प्रति उस श्रद्धा को पूर्ववत् बनाए रखें और आचार्य सम्मत गुणों का अनुपालन करें। बालक मोहन ने भी जिस श्रद्धा और संयम निष्ठा के साथ घर से अभिनिष्क्रमण किया था वह निष्ठा संयम जीवन के पचास वर्षों में उत्तरोत्तर प्रवर्धमान होती गई और आज पंचाचार की साधना में निष्णात युगप्रधान आचार्य श्री महाश्रमण के रूप में वह प्रकाशमान चेतना जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ का नेतृत्व करती हुई सम्पूर्ण विश्व में देदीप्यमान हो रही है।
आचार्य महाश्रमण अपने जीवन में श्रमणत्व को बहुत अधिक महत्व देते हैं। उनकी दृष्टि में साधु के पद से बड़ा और कोई पद नहीं है। एक बार गुजरात के शिक्षा मंत्री प्रफुल्ल भाई ने आचार्यश्री महाश्रमण से अनुरोध किया कि आप भगवान महावीर युनिवर्सिटी से मानद की उपाधि यानी डी. लिट् की उपाधि स्वीकार करें। उन्होंने केवल शाब्दिक अनुरोध ही नहीं किया अपितु वे डी. लिट् की उपाधि देने की पूरी तैयारी के साथ उपस्थित भी हो गए। परन्तु आचार्य महाश्रमण ने प्रसन्न मन से तथा सुन्दर तरीके से उपाधि लेने से अस्वीकार कर दिया और कहा- ‘मुझे साधु की डिग्री प्राप्त हुई है वह मेरी जीवन भर सुरक्षित रहे और साधु की डिग्री के सामने यह डिग्री बहुत ही छोटी है।'
योग ग्रंथों में कहा गया है ‘निस्पृहो मुनिसत्तमः’ जो निस्पृह होता है वह मुनि श्रेष्ठ मुनि कहलाता है। आचार्य महाश्रमण संतता के उच्च शिखर पर विराजमान हैं। उनका जीवन कमल की भांति निस्पृहता का अप्रतिम उदाहरण है। किसी भी प्रकार की भौतिक उपाधियां, अलंकरण उनकी साधना को स्खलित नहीं कर सकते। उनका श्रमणत्व बहुत ऊंचा है। एक बार आचार्यश्री तुलसी ने ‘मुनि कैसा होना चाहिए’ इसका समाधान देते हुए कहा कि मुनि हो तो मुनि मुदित जैसा। यह मुनियों के लिए आदर्श रूप है।
आचार्यश्री महाश्रमण के श्रेष्ठतम और महान् श्रामण्य का रहस्य क्या है इस पर चिंतन करें तो कहा जा सकता है उनके आदर्श श्रमण जीवन का एक महत्वपूर्ण और विशिष्ट सूत्र है- उपशम की साधना। आर्हत् वाड्मय में कहा गया- ‘उवसम सारं खु सामण्णं’ अर्थात् उपशम ही श्रामण्य का सार है।
आचार्य श्री महाश्रमण की उपशम साधना बेजोड़ है। कहा भी गया है कि संत वह होता है जो शांत होता है। जिस व्यक्ति के क्रोध, मान, माया और लोभ शांत होते हैं, प्रशान्त होते हैं, उसे उपशम कषायी कहते है। आचार्य श्री महाश्रमण उपशम की साधना में रमण करने वाले महान् योगी हैं।
10 जून 2006 की बात है। मध्याह्न लगभग 4 बजे का समय था। आचार्य श्री महाप्रज्ञ कमरे में विराजमान थे। गर्मी के दिन थे। बाल मुनि महावीर कुमार जी (वर्तमान मुख्य मुनिप्रवर) और मुनि नय कुमार जी ने आचार्यप्रवर के कमरे में लगी इलेक्ट्रॉनिक घड़ी में तापमान को देखकर आचार्यप्रवर से निवेदन किया कि आचार्य प्रवर के कमरे का तापमान 40 डिग्री है और युवाचार्यश्री महाश्रमण के कमरे का तापमान 38 डिग्री है। दिन में भी आचार्य श्री के कमरे का तापमान 38 डिग्री था और युवाचार्य श्री के कमरे का 36 डिग्री। बालमुनियों की बात सुनकर आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने कहा- महाश्रमण के उपशम ज्यादा है इसलिए कमरे का तापमान भी कम रहता है। हालांकि बाहर का तापमान तो प्रक्रति के अनुसार परिवर्तित होता रहता है। परन्तु यहां इसका तात्पर्य यह है कि स्वयं गुरु अपने शिष्य की साधना से कितने प्रभावित थे। वे युवाचार्य श्री महाश्रमण का उदाहरण देकर संभवतः अपने शिष्यों को प्रेरणा देना चाहते थे कि कषायों की मन्दता बाह्य वातावरण को भी अनुकूल बना देती है।
उपशम योगी आचार्य श्री महाश्रमण की अकषाय की साधना अद्भुत है। ऐसा प्रतीत होता है कि क्रोध, मान, माया, और लोभ ये चारों कषाय उनके अधीन हो गए हैं। इसलिए उनके व्यक्तित्व में क्षमा, मृदुता, ऋजुता और संतोष गुण पराकाष्ठा लिए हुए है। विशाल धर्मसंघ का नेतृत्व करते हुए कभी आचार्यप्रवर को अनुशासन भी करना पड़ता है परन्तु क्षमा और मृदुतापूर्ण अनुशासन के
प्रति साधु-साध्वियां श्रद्धा प्रणत हो जाते हैं। अनुशासन में भी इतनी क्षमा और मृदुता उपशम की उत्कृष्ट साधना से ही संभव है।
आचार्यश्री महाश्रमण के भीतर उपशम गुण ने सर्वोच्च स्थान पाया है तो निरंहकारता की साधना भी उत्कृष्टता लिए हुए है। उनकी विनम्रता सकल धर्मसंघ के लिए अनुकरणीय है। वह चाहे आप्त वाणी के प्रति हो, भगवान महावीर के प्रति हो, अपने पूर्वाचार्यों के प्रति हो या रत्नाधिक साधु-साध्वियों के प्रति हो। आचार्यप्रवर का अन्य जैन सम्प्रदाय के आचार्य, साधु-साध्वियों के प्रति भी सम्मान का भाव है। यदा-कदा उनसे मिलना होता है तो पट्ट से नीचे उतरकर सामने पधारते हैं या पहुंचाने के लिए कदम बढ़ाते हैं। कभी-कभी उनसे मिलने के लिए निर्णीत विहार में परिवर्तन कर अतिरिक्त चक्कर लेना भी स्वीकार कर लेते हैं।
सन् 2023 के बायतू मर्यादा महोत्सव से पूर्व आचार्य श्री महाश्रमण जोधपुर पधारे। उन्हें ज्ञात हुआ कि स्थानकवासी सम्प्रदाय के वयोवृद्ध आचार्य हीरालालजी यहां विराजित हैं और वे अभी अस्वस्थ हैं। आचार्य प्रवर उनसे मिलने के लिए अतिरिक्त विहार कर वहां पधारे।
प्रायः विशेष अवसर के बिना आचार्यप्रवर सात सीढ़ियों से अधिक ऊपर नहीं चढ़ते परन्तु उनसे मिलने ऊपर पधारे। उनके पास विराजे और लगभग 40-50 मिनिट चर्चा-वार्ता का क्रम रहा। यह घटना आचार्यश्री महाश्रमण के विशिष्ट विनम्रता गुण को उजागर करने वाली है।
जहां ऋजुता होती है वहां वक्रता को स्थान प्राप्त नहीं हो सकता, वहां माया अप्रभावी बन जाती है। आगमकार ने लिखा है- ‘सोही उज्जुयभूयस्स धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई’। शुद्धि उसकी होती है जो ऋजुभूत होता है और धर्म शुद्ध आत्मा में ठहरता है। आचार्यश्री महाश्रमण की ऋजुता के प्रसंग सुनते है तो ऐसा लगता है मानों पवित्रता और धर्म के ठहरने के लिए यही उत्तम आश्रय है। आचार्यप्रवर की ऋजुता का एक प्रेरणास्पद प्रसंग है-
11 अप्रैल 2022 आचार्यश्री महाश्रमण का हिसार से आर्यनगर के लिए विहार निर्धारित था। विहार से पूर्व आचार्यप्रवर ने साध्वी भाग्यवतीजी, साध्वी तिलकश्री जी, साध्वी यशोधरा जी आदि छह सिंघाड़ों को सेवा कराई। सेवा के दौरान आचार्यप्रवर ने साध्वी यशोधरा जी से कहा- जब मैं बालमुनि था तब आप मुझे संस्कृत में पूछा करते थे। एक बार आपने मुझे कहा कि 'मेरा मन प्रसन्न है’ इसे संस्कृत में बोलो। मैंने तत्काल ही बोला- ‘मम मनः प्रसन्नः अस्ति।’ आचार्यप्रवर ने साध्वी यशोधरा जी से कहा- उस समय आपने मुझे कहा था कि मन तो नपुंसकलिंग है फिर प्रसन्नः कैसे आएगा। तब मैंने उसका परिष्कार करते हुए कहा- ‘मम मनः प्रसन्नमस्ति।’
यह प्रसंग सुनकर साध्वी यशोधरा जी ने कहा- गुरुदेव! धन्य है आपकी ऋजुता को। हम तो हमारी कोई गलती होती है तो सोचते हैं किसी के सामने न बोले और आचार्यप्रवर ने इतने लोगों के सामने अपनी गलती को बता दिया। अनुत्तर ऋजुता के कारण आचार्य श्री महाश्रमण का व्यक्तित्व स्फटिक के समान निर्मल, गंगाजल के समान पवित्र और दर्पण के समान पारदर्शी है।
उपशम, मृदुता, ऋजुता के साथ-साथ संतोष संपदा भी आचार्यप्रवर के संयम जीवन को समृद्ध बना रही है। उनकी लोकप्रियता या सर्वप्रियता का एक महत्पपूर्ण कारण है पदार्थ हो या पद, सम्मान हो या अलंकरण उनकी अध्यात्मा चेतना को आकर्षित नहीं कर सकते। देश ही नहीं विदेश की धरती पर भी तेरापंथ धर्मसंघ का अच्छा प्रभाव है। दूसरे देश में धर्मसंघ का इतना अच्छा प्रभाव होना एक आचार्य के लिए विशेष उपलब्धि है। यह उनके यश और प्रसिद्धि का बहुत बड़ा माध्यम है। अपने प्रभाव को फैलाने के लिए जहां एक ओर व्यक्ति अपने मूल्यों के साथ भी समझौता करने के लिए तैयार हो जाता है। वहां आचार्यश्री महाश्रमण जैसे महापुरूष अपना प्रभाव और यश फैलाने वाले प्राप्त अवसरों में भी संतुलित रहते हैं। उनका मानना है कार्य जितना भी हो गुणवत्ता वाला होना चाहिए। मात्र संख्यात्मक वृद्धि को वे वास्तविक विकास का कारण नहीं मानते हैं।
तेरापंथ धर्मसंघ में रेपिड फोर्स के नाम से पहचानी जाने वाली समणश्रेणी की मांग विदेशों में बढ़ती जा रही है। लगभग 17-18 वर्षों से मायामी की जानी-पहचानी फ्लोरिडा इन्टरनेशनल युनिवर्सिटी में समणीजी अध्यापन करवा रही हैं। अन्य विदेशी युनिवर्सिटी जैसे घेण्ट, बर्मिंघम आदि अनेक जगह से भी आचार्यप्रवर के पास पत्र आते हैं कि आप अपनी शिष्या समणीजी को हमारी युनिवर्सिटी में भी पढ़ाने के लिए भेजे। यह आचार्यप्रवर के कीर्ति को फैलाने वाला अवसर है परन्तु आचार्यप्रवर का मानना है जितनी जगह अपने कार्य चल रहे हैं वे अच्छी तरह सम्पादित होते रहें। इतनी बड़ी-बड़ी युनिवर्सिटीज के ऑफर को ससम्मान लौटा देना उनकी निर्लिप्तता का द्योतक है, उनके संतोष गुण को प्रकट करने वाला प्रसंग है।
दसवेआलियं सूत्र में कहा गया-
‘‘उवसमेण हणे कोहं,
माणं मद्दवया जिणे।
मायं चज्जवभावेण,
लोभं संतोसओ जिणे।।’’
इस गाथा को केवल कण्ठों में ही नहीं जीवन में धारण करने वाले आचार्य श्री महाश्रमण के उत्कृष्ट साधना स्तर को शत्-शत् नमन। 51 वें दीक्षा कल्याण महोत्सव के शुभ अवसर पर हम आचार्यप्रवर से यही आशीर्वाद चाहते हैं कि हमारे कषाय प्रतनु होते जाएं और वैराग्य रूपी सुघोषा घण्टे का नाद हमें सदैव आत्म जागृति का संदेश देता रहे।