जिनका सब कुछ अनुत्तर है

जिनका सब कुछ अनुत्तर है

वे व्यक्ति सौभाग्यशाली होते हैं, जो आधि, व्याधि और उपाधि से संकुल संसार में सुरक्षा कवच के रूप में संयम की उजली चादर ओढ़ने का अवसर पा लेते हैं। संयम की चादर अपने-आप में उजली होती है। वह जीवनभर उसी रूप में बनी रहे, इसके लिए अपेक्षित है अभीक्ष्ण जागरूकता की। ‘दिवा वा राओ वा, एगओ वा परिसागओ वा, सुत्ते वा जागरमाणे वा’- इस आगमवाणी को प्रहरी बनाने वाला साधक इतना अप्रमत्त होता है कि उसकी चद्दर पर कोई धब्बा लग ही नहीं सकता।
अनुत्तर संयम के साधक
आचार्य महाश्रमण की संयम-साधना अनुत्तर है, क्योंकि वे अपने स्वीकृत आचार की छोटी से छोटी बात को भी नजरअंदाज नहीं करते। वे सूक्ष्म-दृष्टि से संयम की आराधना में सजग रहते हैं। ऐसा लगता है कि वे श्वासोच्छ्वास भी पूरी सजगता से लेते हैं। वे कितना ही प्रलम्ब विहार करके आए हों, कुर्सी या पट्ट पर आसीन होने से पहले उनकी नजर स्थान और परिधान का प्रतिलेखन किए बिना नहीं रहती। इससे भी आगे की बात यह है कि रात्रि के समय करवट लेते समय भी स्थान का परिमार्जन उनकी स्मृति से ओझल नहीं होता।
धर्मसंघ के एकमात्र अधिनेता और अनुशास्ता होने के कारण उन्हें कभी किसी को उपालम्भ या प्रायश्चित्त भी देना पड़ता है, पर अगले ही क्षणों में उन पर कृपा/आशीर्वाद का अमृत बरसाकर उसके मुरझाए चेहरे पर गुलाब खिला देते हैं। अनुशासनात्मक कारवाई करने के अवसर पर भी उनकी आकृति, वाणी और भाव-भंगिमा पर वीतरागता की आभा खिली हुई रहती है।
अनुत्तर उपषमभाव के आराधक
आचार्यवर का उपशमभाव बेजोड़ है। उनके पास संवेग-नियंत्रण की अद्भुत क्षमता है। उनकी पछेवड़ी में सलवटें दिखाई दे सकती हैं पर उनके जीवन में रची-बसी सरलता और कोमलता में घृणा, द्वेष, नफरत की एक भी ग्रन्थि परिलक्षित नहीं होती। किसी भी चिन्तन, निर्णय एवं क्रियान्वयन से पहले और पीछे आचार्यवर का उपशम भाव बाधित या प्रभावित नहीं होता। इसीलिए उनके पवित्र आभावलय के चारों ओर उपशम रस की धाराएं बहती रहती हैं और उनकी सन्निधि में पहुंचने वाला व्यक्ति अकल्पित शांति का अनुभव करता है।
अनुत्तर पवित्रता के पुंज
कहा जाता है कि शेरनी के दूध को टिकाकर रखना है तो वह स्वर्णपात्र में ही सुरक्षित रह सकता है। शेरनी के दूध की तरह धर्म का कल्पवृक्ष भी पवित्रता की धरती पर ही पनप सकता है। ‘धम्मो सुद्धस्स चिट्ठइ’ यह आगम सूक्त भी इसी तथ्य को प्रमाणित करता है। आचार्यवर के अन्तःकरण की नैसर्गिक पवित्रता के कारण अनुकूलता की स्थिति में अतिरिक्त आह्लाद की अभिव्यक्ति नहीं होती और प्रतिकूलता में खिन्नता का दर्शन नहीं होता। प्रत्युत् उनमें सिद्धयोगी-सी सहजता, स्थिरता और एकाग्रता निरन्तर बनी रहती है। आचार्यश्री के भीतरी रसायन की तासीर इतनी पवित्र है कि उनकी इंद्रियां और मन कभी सुविधा का लिबास ओढ़ने को उत्सुक ही नहीं होता।
आचार्यवर की पवित्रता में ऐसा चुम्बकीय आकर्षण है, जो दूर-दराज से ही लोगों को अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है।
कुछ पलों का साक्षात्कार करने वाला व्यक्ति भी उनका पवित्र मुखमण्डल देखकर आनन्द से भर जाता है। जिन व्यक्तियों को चरण-स्पर्श करने और बात करने का अवसर मिल जाता है, उनकी खुशी का तो कहना ही क्या? आचार्यश्री की पवित्रता के निर्मल नीर से अभिस्नात व्यक्ति का रोम-रोम उनकी पवित्र ऊर्जा और प्रसन्नता से भर जाता है। निरन्तर उनके पवित्र आभामंडल में रहने वालों को जिस अलौकिक सुख, समाधि और शान्ति का अनुभव होता है, वह अनिर्वचनीय है उसे शब्दों में प्रस्तुति दी जा सके, यह संभव नहीं लगता।
अनुत्तर क्षमाधर्म के पर्याय
जैन आगमों में दस प्रकार के श्रमणधर्म का उल्लेख है। उनमें प्रथम श्रमणधर्म है क्षान्ति, क्षमा। क्षमा का अर्थ है- सहनशीलता। आचारांग सूत्र के अनुसार निर्ग्रन्थ वह होता है जो शीत और उष्ण को सहन करता है। यहां शीत एवं उष्ण शब्द प्रतीकात्मक है। वास्तव में ये शब्द अनुकूल एवं प्रतिकूल परिस्थितियों के वाचक हैं। आम आदमी अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में विचलित हो जाता है पर निर्ग्रन्थ मुनि के लिए आवश्यक है कि वह हर स्थिति में सन्तुलित रहे। यह सिचुएशन मैनेजमेंट का सिद्धान्त है, जो साधक परिस्थितियों को मैनेज करना जानता है, वह उन पर विजय प्राप्त कर सकता हे। पर ऐसा होना तभी संभव है, जब व्यक्ति में उच्च स्तर की सहनशीलता हो।
आचार्य महाश्रमण श्रमणधर्म (निर्ग्रन्थ धर्म) की आराधना के प्रति सहज रूप में सजग हैं। क्षुधा-पिपासा, सर्दी-गर्मी जैसी प्राकृतिक परिस्थितियां कभी उनके तन पर हावी नहीं होती। इस मानसिक दृढ़ता के कारण उन्होंने अपने शरीर को भी उसी रूप में साध लिया। इस दृष्टि से उनको परीषहजयी कहा जा सकता है। शास्त्रों में साधु के लिए बाईस परीषह बताए गए हैं। जो साधक इन परिषहों से प्रकम्पित नहीं होता, वह जीवन की किसी भी परिस्थिति में विचलित नहीं हो सकता। वह तो इस भाषा में सोचता है-
चलें चलो मौसम हुए, कब किसके अनुरूप?
एक मुसाफिर के लिए, क्या छाया क्या धूप।।
आचार्य महाश्रमण की क्षमा अनुत्तर है। एक संघ के अधिनेता/अनुशास्ता के सामने कैसी-कैसी परिस्थितियां पैदा हो सकती हैं, इस बात को न तो सब लोग जानते हैं और न अनुभव ही कर पाते हैं।
उन विषम परिस्थितियों में मन के संतुलन को साधकर रखना सहनशीलता की सबसे बड़ी कसौटी है। आचार्य महाश्रमण के लिए वह कसौटी भी अकिंचित्कर है। उनका मानसिक संतुलन भी गजब का है।
आचार्य महाश्रमण के जीवन को किसी भी कोण से देखा जाए, उनका सब कुछ अनुत्तर प्रतीत होता है। उनके अनुत्तर क्षमाधर्म की सहस्रों-सहस्रों रश्मियां तेरापंथ धर्मसंघ में ही नहीं, संपूर्ण मानव जाति में सहनशीलता के भाव संप्रेषित करती रहे।
अध्यात्म के ऐसे अनुचर महासूर्य के दीक्षा कल्याणक महोत्सव पर अन्तः करण की असीम आस्था के साथ मंगलकामना करती हूं कि आप चिरायु हो और दीर्घकाल तक तेरापंथ धर्मसंघ को महिमामंडित करते रहें।