त्रिविध धर्म साधना से भरते जाएं आत्मा का कलश :आचार्यश्री महाश्रमण
तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशम् अधिशास्ता आचार्यश्री महाश्रमणजी आज प्रात: अपनी धवल सेना के साथ सप्त दिवसीय प्रवास हेतु जालना में पधारे। जालना में पूज्यवर का 63वां जन्मोत्सव, 15वां पट्टोत्सव एवं पचासवें दीक्षा कल्याणक महोत्सव के समापन का कार्यक्रम आयोजित होना है। जालना प्रवास के प्रथम दिन महामनीषी आचार्य श्री महाश्रमण जी ने पावन प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि धर्म के तीन प्रकार होते हैं- अहिंसा, संयम और तप। अहिंसा धर्म है, संयम रखना धर्म है, और तप तपना भी धर्म है। साधु के संदर्भ में आगम में बताया गया है कि वर्ष को हम तीन भागों में बांट दे- सर्दी, गर्मी और वर्षा। साधु गर्मी की ऋतु में आतापना लेते हैं, आतापना तपस्या है। गर्मी में साधु यात्रा करता है तो पूरा शरीर तप्त हो जाता है, यह भी एक तरह की आतापना हो सकती है।
सर्दी में साधु ठंड को सहन करे, इसको भी तपस्या कहा जाता है। वर्षा में शरीर का संयम रखे, गुप्त रखे। एक जगह चातुर्मास में रहे, स्वाध्याय, ध्यान, जप और तप करे। बाह्य व आभ्यंतर दो प्रकार के तप होते हैं। तपस्या से निर्जरा अर्थात् आत्म शोधन होता है। साथ में संयम-संवर की साधना हो सकती है। जीवन में मन, वचन, काय से अहिंसा की साधना करना भी धर्म है। साधु के लिए तो ये सब जरूरी है। जो आगार धर्म का पालन करने वाले हैं, गृहस्थ हैं, वे भी धर्म की साधना करें। हमें मानव जीवन प्राप्त है, इसका बढ़िया उपयोग करना चाहिए। जैन-अजैन सभी इसकी साधना कर सकते हैं। अणुव्रत से जीवन को संयम युक्त बनाया जा सकता है। कहीं पर रहो, मांसाहार का प्रयोग न हो। होटल, हॉस्टल या हॉस्पिटल में, देश में हो या विदेश में, धर्म के निर्देश के अंतर्गत रहना चाहिए।
अनंतकाय-जमीकंद के प्रयोग व रात्रि भोजन से भी बचने का प्रयास होना चाहिए। गृहस्थ जीवन में भी अनेक रूपों में तपस्या की जा सकती है। कुछ उम्र आने के बाद समय साधना में लगे। चौदह नियम का पालन कर टिफिन तैयार कर लेवें। सपाथेय यात्री अटवी को सुरक्षित पार करने वाला होता है, साथ में कुछ भी नहीं है, अपाथेय है, तो मार्ग में मुश्किल हो सकती है। आगे के लिए धर्म का पाथेय तैयार कर लें। हमारी आत्मा का कलश धर्म की बूंदों से भरता जाए। अहिंसा, संयम, तप के द्वारा इस कलश को भरने का प्रयास करें। बारह व्रत, सुमंगल साधना को स्वीकार करें, व्यापार में ईमानदारी, व्यवहार में सद्भावना, नैतिकता एवं नशामुक्ति का प्रयास करें।
धर्म बड़ी सम्पति है, धन इस जीवन के बाद काम नहीं आता, धर्म आगे भी काम आ सकता है। भगवान महावीर तो कितने बड़े संपत्तिशाली थे। वैशाख शुक्ला दशमी के दिन लगभग एक ही साथ चार संपत्तियां उन्हें प्राप्त हो गयी थी - केवलज्ञान, केवलदर्शन, वीतरागता और अन्तराय रहितता। हम भी उस सम्पदा को प्राप्त करने का प्रयास करें। शास्त्र शासन और त्राण देने वाले होते हैं। हम शास्त्र का प्रयोग करें और शस्त्रों के प्रयोग से बचने का प्रयास करें। अहिंसा, संयम और तप इस त्रिविधधर्म की साधना करने का प्रयास करें ताकि आत्मा संपत्तिशाली बन सके। आत्मा का कल्याण हो सके।
साध्वीप्रमुखा श्री विश्रुतविभाजी ने अपने उद्बोधन में कहा कि भारतीय संस्कृति में गुरू का सर्वोपरि स्थान है। गुरू हमारे मार्गदर्शक, पथप्रदर्शक होते हैं। गुरु के निर्देश से हम आध्यात्मिक सम्पदा को प्राप्त कर सकते हैं। गुरू वह होता है जो अकिंचन होता है। लोग आपका अभिनंदन करते हैं क्योंकि आपके पास अध्यात्म की संपदा है। मुनि चिन्मय कुमार जी ने श्रीचरणों में अपनी भावना अभिव्यक्त की। स्थानीय सभा अध्यक्ष सुनील सेठिया, तेयुप से परेश धोका एवं सदस्यगण, कन्यामंडल, सकल जैन समाज ने पूज्य प्रवर के स्वागत में अपनी प्रस्तुति दी। ज्ञानशाला की सुन्दर प्रस्तुति हुई। गुरु गणेश तपोधाम के अध्यक्ष धर्मचंद गादिया ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।