श्रमण महावीर

स्वाध्याय

श्रमण महावीर

भय की तमिस्त्रा : अभय का आलोक

चंडकौशिक भगवान् के पैरों के पास पहुंच गया। उसने सारी शक्ति लगाकर भगवान् के बाएं पैर के अंगूठे को डसा। विष ध्यान की शक्ति से अभिभूत हो गया। विषधर देखता ही रह गया। उसने दूसरी बार पैर को और तीसरी बार पैरों में लिपटकर गले को डसा। उसके सब प्रयत्न विफल हो गए। क्रोध के आवेश में वह खिन्न हो गया। बार-बार के वेग से वह थककर चूर हो गया। वह कुछ दूर जाकर भगवान् के सामने बैठ गया।
भगवान् की ध्यान-प्रतिमा सम्पन्न हुई। उन्होंने देखा चंडकौशिक अपने विशालकाय शरीर को समेटे हुए सामने बैठा है। भगवान् ने प्रशान्त और मैत्री से ओतप्रोत दृष्टि उस पर डाली। उसकी दृष्टि का विष घुल गया। उसके रोम-रोम में शान्ति और सुधा व्याप्त हो गई।
यह है अहिंसा की प्रतिष्ठा और मैत्री की विजय।
ग्वाले महावीर के पीछे-पीछे आ रहे थे। उन्होंने पेड़ पर चढ़कर दूर से सब कुछ देखा। वे आश्चर्य चकित रह गए। उन्होंने दूर-दूर तक यह संवाद पहुंचा दिया कि 'चंडकौशिक' शान्त हो गया है। कनकखल आश्रम का मार्ग अब निरापद है। हर कोई आदमी-इससे आ-जा सकता है। जनता के लिए यह बहुत ही शुभसंवाद था। वह हर्षोत्फुल्ल हो गई। हजारो-हजारों आदमी वहां आए। उन्होंने देखा मंडप के मध्य में एक योगी ध्यानमुद्रा में खड़े हैं और उनके सामने विषधर प्रशान्त मुद्रा में बैठा है। जिसका नाम सुनकर लोग भय से कांपते थे उसी विषधर के पास लोग जा रहे हैं। यह कुछ विचित्र-सा लग रहा है। उन्हें अपनी आखों पर भरोसा नहीं हो रहा है। भगवान् महावीर पन्द्रह दिन तक वहां रहे। उनका यह प्रवास अभय और मैत्री की कसौटी, ध्यानकोष्ठ में बाह्य-प्रभाव-मुक्ति का प्रयोग, अहिंसा की प्रतिष्ठा में क्रूरता का मृदुता में परिवर्तन और जनता के भय का निवारण-इन चार निष्पत्तियों के साथ सम्पन्न हुआ।1
३. अभी साधना का दूसरा वर्ष चल रहा है। भगवान् सुरभिपुर से थूणाक सन्निवेश की ओर जा रहे हैं। बीच में हिलोरें लेती हुई गंगा बह रही है। भगवान् उसके तट पर उपस्थित हैं। सिद्धदत्त की नौका यात्रियों को उस पार ले जाने को तैयार खड़ी है। सिद्धदत्त भगवान् से उसमें चढ़ने के लिए आग्रह कर रहा है। भगवान् उसमें आरूढ़ हो गए हैं।
नौका गन्तव्य की दिशा में चल पड़ी। यात्री बातचीत में संलग्न हैं। महावीर अपने ही ध्यान में लीन हैं। नौका नदी के मध्य में पहुंच गई। प्रकृति ने एक नया दृश्य उपस्थित किया। आकाश बादलों से घिर गया। बिजली कौंधने लगी। गर्जारव से सब कुछ ध्वनिमय हो गया। तूफान ने तरंगों को गगनचुम्बी बना दिया। नौका डगमगाने लगी। यात्रियों के हृदय कांप उठे। इस स्थिति में भी महावीर उस नौका के एक कोने में शान्तभाव से बैठे हैं। उनका ध्यान अविचल है मानो उन्हें प्रकृति के इस रौद्र रूप का पता ही नहीं।
भय भय को उत्पन्न करता है, अभय अभय को। सदृश की उत्पत्ति का जैविक सिद्धान्त मनुष्य की मानसिक वृत्तियों पर भी घटित होता है। महावीर के अभय ने प्रकृति की रुद्रता से भयभीत यात्रियों में अभय का संचार कर दिया। वे उनकी अभयमु‌द्रा को देख शान्त हो गए। प्रकृति का आवेग भी शान्त हो गया। नौका ने यात्रियों को तट पर पहुंचा दिया। महावीर मृत्यु-भय की महानदी को पार कर अभय के तट पर पहुंच गए।
आदिवासियों के बीच
कस्तूरी घिसने को सहन नहीं करती, घर्षण से उसका परिमल प्रस्फुट नहीं होता। अगरबत्ती अपनी सुरभि से सारे वायुमण्डल को सुरभित नहीं कर पाती, यदि अग्निस्नान उसे मान्य नहीं होता। अग्निताप को सहकर सोना चमक उठता है। यह हमारी दुनिया ताप और संघर्ष की दुनिया है। इसमें वही व्यक्तित्व चमकता है, जो ताप और संघर्ष को सहता है।
भगवान् अपनी चेतना में निखार लाने के लिए कृतसंकल्प हैं। ताप और संघर्ष अनुचर की भांति उनके साथ-साथ चल रहे हैं।