‘धी’ सम्पन्न आचार्य महाश्रमण
जैन आगमों में आभिनिबोधिक ज्ञान के दो प्रकार बतलाए गए हैं-
श्रुत निश्रित मति और अश्रुत निश्रित मति।
अश्रुत निश्रित मति के चार प्रकार हैें-
1. औत्पत्तिकी बुद्धि
2. वैनयिकी बुद्धि
3. कार्मिकी बुद्धि
4. पारिणामिकी बुद्धि
औत्पत्तिकी बुद्धि- अदृष्ट, अश्रुत और अनालोचित विषय को तत्काल यथार्थ रूप से ग्रहण करने वाली बुद्धि।
ऐसे सुना एवं पढ़ा है कि तेरापंथ धर्मसंघ के प्रथम अधिशास्ता औत्पत्तिकी बुद्धि के धनी थे। हमने उन्हें तो नहीं देखा परन्तु उन्हीं के परम्परा पट्टधर तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशम् अधिशास्ता की औत्पत्तिकी बुद्धि का साक्षात्कार किया है। तत्वज्ञान में कई गहरे तथ्य आते हैं। उन तथ्यों में से एक हैें- चारित्र इहभविक है। वह इसी भव तक सीमित है।
अगले जन्म में साथ नहीं जाता। इसको आचार्य श्री महाश्रमण ने अपने औत्पत्तिकी मेधा से उदाहरण के द्वारा समझाया। जैसे कोई गृहस्थ परदेश में कमाई के लिए जाता है, वहां दुकान बनाता है और बहुत अर्थार्जन करता है। कुछ समय बाद अच्छी कमाई करके वह पुनः अपने देश लौटता है। उस समय उसकी दुकान साथ नहीं जाती किन्तु कमाई साथ जाती है। ठीक इसी प्रकार साधुपन साथ नहीं जाता, साधुत्व से जो संयम और निर्जरा की कमाई होती है, वह हमारे साथ जाती है।
वैनयिकी बुद्धि- गुरुजनों के विनय से उत्पन्न होने वाली बुद्धि।
विनय कई प्रकार के होते हैं। हमने आचार्यप्रवर में रत्नाधिकों के प्रति विनय एवं छोटों के प्रति सम्मान के भाव देखे। जब भी कोई रत्नाधिक पूज्यवर के सम्मुख आते हैं अथवा आचार्यप्रवर के दुष्टिगोचर भी हो जाते हैं तो प्रायः आपके हस्तकमल उनके अभिवादन में जुड जाते हैं। प्रवचनों में या गोष्ठी आदि में यदि कोई वृद्ध या अक्षम साधु-साध्वी आए तो आचार्य प्रवर उनके लिए कुर्सी की व्यवस्था कराते हैं। जब-जब कोई धर्मसंघ की महत्वपूर्ण घोषणाएं अथवा कोई कार्यक्रम होते हैं तो आचार्य श्री अपने पूर्वांचार्यों का स्मरण करते हैं। यह उनकी उत्कृष्ट विनम्रता और श्रद्धा के उदाहरण हैं।
आचार्यश्री महाश्रमण का ज्ञान विनय भी अनुत्तर है। आचार्यश्री किसी ग्रंथ का वाचन या किसी कक्षा से पूर्व 'णमो उवज्झायाणं' का उच्चारण करते हैं। प्रवचन आदि में फरमाते-फरमाते कोई त्रुटि न हो इसलिए 'ज्ञान की आशातना न हो' आदि शब्दों का उपयोग करते हैं। युगप्रधान आचार्य श्री महाश्रमण की तीक्ष्ण मेधा को देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इसका एक कारण है- आचार्यप्रवर की विनयशीलता।
संस्कृत का एक सूक्त है- विद्या विनयेन शोभते अर्थात् विद्या विनय से सुशोभित होती है। आपके जीवन में यह उक्ति भी चरितार्थ होती है-
विद्या विनयेन वर्धते अर्थात् विद्या विनय से वर्धमान होती है।
कार्मिकी बुद्धि- अभ्यास करते-करते उत्पन्न होने वाली बुद्धि।
यह कार्य में गहरी एकाग्रता से उत्पन्न होती है। कुछ दिनों पूर्व का प्रसंग है- पूज्य प्रवर ने साध्वियों को एक श्लोक सिखाया-
‘त्रिविधं नरकस्येदं, द्वारं नाशन्मात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्, तस्मातेतद् त्रयं त्यजेत्।।
आचार्य प्रवर से पूछने पर बताया गया कि वह भगवद् गीता के सोलहवें अध्ययन का श्लोक है। आश्चर्य होता है कि भगवद् गीता जैसे ग्रंथ के कुछ अध्ययन जो आपने बचपन में याद किए थे वह अभी भी आपके स्मृतिपटल में है। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि आचार्यश्री महाश्रमण की एकाग्रता और कार्य में दत्तचित्तता शुरू से ही अनुत्तर थी। आचार्य प्रवर ने अंग्रेजी की इस कहावत - 'Practice makes a man perfect' को अपने जीवन में आत्मसात कर लिया है।
चाहे अंग्रेजी हो या संस्कृत आचार्यश्री के भाषा ज्ञान में निखार एवं कौशल है। यह आचार्य प्रवर की कर्मजा बुद्धि का ही परिणाम है।
पारिणामिकी बुद्धि- अवस्था के परिपाक से उत्पन्न होने वाली बुद्धि।
आचार्यश्री महाश्रमण ने एक दिन प्रवचन में कहा कि आचार्य में इतनी क्षमता होनी चाहिए कि वह किसी भी प्रकार का निर्णय निर्भीकता से ले सके। चाहे वह भयंकर भूकंप की स्थिति हो या भयावह कोरोना महामारी का समय, साधन संबंधी, लोच संबंधी या अन्य आचार संबंधी निर्णय हो, आचार्य श्री महाश्रमण ने हमेशा साहसिक निर्णयों से संघ की सार संभाल की। परिणाम द्रष्टा आचार्य महाश्रमण कोई भी निर्णय करने से पहले उसके परिणाम पर चिंतन करते हैं। भविष्य को सुंदर बनाने के लिए सतत् प्रयत्नशील आचार्य प्रवर पारिणामिक मेधा के धनी हैं।
आगम में वर्णित इन चारों प्रकार की बुद्वि की उत्कृष्टता के कारण आचार्य प्रवर का व्यक्तित्व 'धी' सम्पन्नता से सुशोभित है। 'धी' सम्पन्न आचार्य महाश्रमण की शासना युगों-युगों तक युग का पथ दर्शन करती रहे।