सार्थवाह की अनूठी संभाल

सार्थवाह की अनूठी संभाल

इन्द्रभूति गौतम भगवान महावीर के प्रमुख शिष्य थे। भगवान ने प्रथम दर्शन में ही उनकी जिज्ञासा को समाहित कर उन्हें अध्यात्म का आलंबन दिया और श्रद्धा की नींव को गहरी कर दी। तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशमाधिशास्ता परम पूज्य आचार्यश्री महाश्रमणजी एक विरले महापुरुष हैं जो तीर्थंकर वर्द्धमान के समान अव्यक्त प्रश्नों को अपनी अनोखी शैली से समाहित कर अध्यात्म के पथ को प्रशस्त करते हैं।
कई महिनों पहले की बात है- मेरे मन में प्रश्न आया कि- आचार्यों की वंदना में हम ‘भव-भव में आपकी शरण आपका आधार' कहते हैं पर ये कैसे संभव है? क्योंकि आचार्यों के तो उत्कृष्ट तीन (या) पांच भव ही होते हैं और हमारे कितने भव, कितना समय अवशेष है, इसकी पूरी जानकारी नहीं है, फिर ये कैसे घटित होगा? संयोग की बात है, उन्हीं दिनों मैं एक श्राविका के साथ तत्त्वचर्चा कर रही थी। अनायास ही उसने मुझे पूछा- आपने आज का प्रवचन सुना? मैंने कहा- ‘नहीं उसने कहा- आज गुरुदेव ने प्रवचन में पूछा- 'भव-भव में आपकी शरण, आपका आधार' से क्या तात्पर्य है? प्रश्न को सुनते ही मेरे मन में विस्मय-मिश्रित प्रसन्नता हुई। विस्मय इसलिए कि बिना पूछे मेरा प्रश्न गुरुदेव तक कैसे पहुंच गया, और प्रसन्नता इसलिए कि स्वयं गुरुदेव ने एक ही वाक्य में मेरा प्रश्न समाहित कर दिया। प्रवचन में प्रश्न का समाधान देते हुए गुरुदेव फरमाते हैं- ‘भव-भव में आपकी शरण आपका आधार अर्थात भव-भव में सुदेव, सुगुरू और वीतराग धर्म की शरण है।’ ऐसी अनेक घटनाएं हैं जहां पूज्य प्रवर ने अपने भक्तों की अव्यक्त जिज्ञासाओं को समाहित किया और उनकी श्रद्धा को सुदृढ़ किया।
गुरु केवल बिना पूछे प्रश्नों का समाधान ही नहीं देते अपितु बिना बताए मन की अस्थिरता को भी समझ लेते हैं और उसे स्थिर करके नवीन पथ प्रशस्त करते हैं। इतिहास की प्रसिद्ध घटना है मुनि मेघकुमार की। मुनि मेघ दीक्षा की प्रथम रात्रि में अस्थिर हो गए। उनके सामने तीन कठिनाईयां आई-
कठोरो भूतलस्चर्शः स्थानं निर्ग्रंथसंकुलम्।
मध्येमार्ग शयानस्य, विक्षेप, निन्यतुर्मन:।।
पहली कठिनाई- भूतल का कठोर स्पर्श, दूसरी कठिनाई- उस स्थान में बहुत बड़ी संख्या में निर्ग्रंथ, तीसरी कठिनाई- आते-जाते हुए निर्ग्रंथों के स्पर्श से उसकी नींद में बाधा पड़ रही थी। इन तीन बातों ने मुनि मेघ के मन को चंचल बना दिया। वह सोचने लगा कब यह रात बीते और सूरज उगे और कब भगवान महावीर के पास जाऊं और कहूं कि संभालो अपना साधुपना। चिर प्रतीक्षित सूर्य की पहली किरण प्रकट हुई। अस्थिर विचारों के साथ वह भगवान महावीर के पास पहुंचा। वंदना कर पर्युपासना करने लगा। वह कुछ बोले इससे पहले ही भगवान ने उसके मन के भावों को जान लिया और सोचा इसे संभालना चाहिए। दुनिया में ऐसे महान व्यक्ति भी होते हैं जो गिरते हुए का हाथ थाम लेते हैं। परम पूज्य आचार्यश्री महाश्रमणजी भी ऐसे विरले महापुरुष हैं जो प्रत्यक्ष और परोक्ष अपनी अनूठी शैली से न जाने कितने-कितने लोगों को संभाल रहे हैं। इस संसार में मुनि मेघ की तरह अनेक व्यक्ति ऐसे हैं जिनका मन प्रतिकूल परिस्थितियों में अस्थिर हो जाता है। ऐसी ही मानसिक अवस्था वाले एक श्रावक ने अपने अतीत की घटना का उल्लेख करते हुए कहा- पांच-सात वर्ष पहले मैं आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक सभी ओर से तनावग्रस्त था, अवसाद की स्थिति में था। उन दिनों मैं गुरुदेव के दर्शनार्थ आया। चूंकि शेष काल था, जनता का आवागमन भी कम था। मैं आचार्यप्रवर के कक्ष के एक कोने में बैठ गया। कुछ समय बाद पूज्यप्रवर ने इशारे से मुझे चरणस्पर्श का संकेत किया।
एक बार तो मैं सहम गया पर हिम्मत जुटाकर मैं गुरुदेव के पास गया और चरण स्पर्श किया। गुरुदेव ने मुझे पूछा मन में क्या बात है? गुरु के पूछने पर एक बालक की तरह मैंने सारी स्थिति सामने रख दी। आचार्यश्री ने मेरे मन की स्थिति को समझते हुए मुझे एक मंत्र दिया और अमुक अवधि तक तप करने का निर्देश दिया। अगले दिन पश्चिम रात्रि में पुनः चरण स्पर्श का इंगित किया। जैसे ही मैंने चरणस्पर्श किया मुझे अनुभव हुआ मेरे भीतर प्राणों का संचार हो गया है। गुरु के चरणस्पर्श और मंत्र से मेरे जीवन में आमूलचूल परिवर्तन आ गया। आस-पास की सारी स्थितियां अनुकूल बन गई। अनुकूल परिस्थितियों में प्रसन्नता से समय व्यतीत करने लगा। तीन चार साल बाद जब गुरुदेव की सेवा में आया तो गुरुदेव ने पूछा- अब मन की स्थिति कैसी है? प्रश्न सुनकर मैं स्तब्ध रह गया। मैने सोचा- इतने वर्ष बीत जाने पर भी गुरुदेव ने मेरी संभाल की। मैंने गुरुदेव से निवेदन किया गुरुदेव की कृपा से अब सब कुछ ठीक है।
इतने विशाल धर्मसंघ को संभालने वाले गुरु एक छोटे से श्रावक की मन: स्थिति के प्रति भी इतने जागरूक हैं। गुरुदेव की उस सार-संभाल ने मेरे मन को ही स्थिर नहीं किया बल्कि संघ-संघपति के प्रति मेरी श्रद्धा को भी सुदृढ़ बना दिया। वास्तव में हम सौभाग्यशाली हैं ऐसे विशिष्ट महापुरुष का साया हमें प्राप्त है। कल्याण मंदिर स्त्रोत्र में कहा गया है-
भो! भो! प्रमादमवधूय भजध्वमेन-
मागत्य निवृतिपुरीं प्रति सार्थवाहम्।
हम भी इस दीक्षा कल्याणक अवसर पर ऐसी ऊर्जा प्राप्त करें कि, प्रमाद को छोड इस मुक्तिपुरी के सार्थवाह - परम पूज्य आचार्यप्रवर के नेतृत्व में अध्यात्म की यात्रा में स्थिरता से आगे बढ़ते रहें।