साधना से मिल सकता है भीतर का सुख : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

साधना से मिल सकता है भीतर का सुख : आचार्यश्री महाश्रमण

वीतराग कल्प आचार्य श्री महाश्रमणजी ने मंगल देशना प्रदान कराते हुए फरमाया कि आदमी सुखी रहना चाहता है, दुःखी रहना नहीं चाहता। सुख दो प्रकार का हो सकता है, एक तात्कालिक सुख जो शुब्द, रूप, रस, गंध, और स्पर्श से प्राप्त होने वाला होता है। दूसरा स्थायी सुख जो कर्म निर्जरा व संवर होने से मिलता है, वह आन्तरिक और आध्यात्मिक सुख होता है। इस तरह दो सुख हो गए - भौतिक सुख और आध्यात्मिक सुख। भौतिक सुख परिस्थिति जन्य, पदार्थ जन्य, विषय जन्य होता है। आध्यात्मिक सुख परिस्थिति मुक्त, पदार्थ और विषय मुक्त, शान्ति या सहज आनन्द के रूप में होता है। सुखी रहने की शास्त्र में कुछ बातें बताई गई हैं। पहली बात कि अपने आप को तपाओ, सुकुमारता को छोड़ो, कठिनाई को प्रसन्नता से झेलने का प्रयास करना। हम दुःख से डरकर भागे नहीं, मनोबल रखें, समता शांति में रहें। कैसी भी परिस्थिति हो उससे डरें नहीं, अपना सामंजस्य बना लें। कामनाओं का अतिक्रमण करें। ज्यादा चाह करो ही मत। द्वेष को छिन्न करो, किसी से ईर्ष्या मत करो।
दूसरों को सुखी देखकर हमें दुःखी नहीं बनना चाहिये और दूसरों को दुःखी देखकर हमें सुखी नहीं बनना चाहिये। अवांछनीय रूप में किसी से भी राग-मोह नहीं करना चाहिये। जहां राग-मोह होता है, वहां दुःख हो सकता है। पदार्थों से कुछ सुविधा मिल सकती है पर भीतर का सुख साधना से मिल सकता है। चिन्तन अच्छा रखने से आदमी सुख-शांति में रह सकता है। हम शांति के लिए धर्म आराधना, अध्यात्म आराधना करें यह काम्य है। मुनि ध्यानमूर्ति जी एवं न्यायाधीश गौतम चोरडिया ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमारजी ने किया।