श्रमण महावीर

स्वाध्याय

श्रमण महावीर

भगवान् उद्यान के मंडप में खड़े हैं। सामने एक तालाब है। कुछ लोग उसके जल को उलीच-उलीचकर बाहर फेंक रहे हैं। वह खाली हो गया है। यह नये जल के स्वागत की तैयारी हो रही है। पानी बरसने लगा। सांझ होते-होते जलधर उमड़ आया। भूमि का कण-कण जलमय हो गया। नाले तेजी से बहने लगे। देखते-देखते तालाब भर गया। भगवान् के मन में वितर्क हुआ कुछ समय पूर्व तालाब खाली था, अब वह भर गया है। वह किससे भरा है? जल से। वह किसके माध्यम से भरा है? नालों के माध्यम से। यदि नाले नहीं होते तो तालाब कैसे भरता? उनका चिंतन बाहर से भीतर की ओर मुड़ गया। उनके मन में वितर्क हुआ-मनुष्य की चेतना का सरोवर किससे भरता है? संस्कार से। वह किसके माध्यम से भरता है? विचार के माध्यम से। यदि विचार नहीं होते तो मानवीय चेतना का सरोवर कैसे भरता? वितर्क करते-करते वे इस बोध की भूमिका पर पहुंच गए यह सरोवर खाली हो सकता है, संस्कारों को उलीच-उलीचकर बाहर फेंकने से। यह सरोवर खाली हो सकता है, नालों को बन्द कर देने से।
भगवान का चिन्तन गहरे-से-गहरे में उतर रहा है। उस समय एक पर्यटक-दल उद्यान में आ पहुंचा। वह मंडप के सामने आ खड़ा हो गया। उसने भगवान् को देखा। एक व्यक्ति आगे बढ़ा, भगवान् के पास आया। उसने पूछा, 'तुम कौन हो?' भगवान् अपने चिन्तन में लीन थे। उसे कोई उत्तर नहीं मिला।
उसने फिर उदात्त स्वर में पूछा, 'तुम कौन हो?'
'मैं यह जानने की चेष्टा कर रहा हूं, मैं कौन हूं।'
'मैं पहेली की भाषा नहीं समझता। सीधी-सरल भाषा में बताओ, 'तुम कौन हो?'
'मैं भिक्षु हूं।'
'यह हमारा क्रीड़ा-स्थल है, यहां किसलिए खड़े हो ?'
'जिसके लिए मैं भिक्षु बना हूं, उसी के लिए खड़ा हूं।'
'यह स्थान तुम्हें किसने दिया है?'
'यह किसी का नहीं है, इसलिए सबके द्वारा प्रदत्त है।'
'अच्छा, तुम भिक्षु हो तो हमें धर्म सुनाओ।'
'अभी मैं सत्य की खोज कर रहा हूं।'
'चलो, किसी काम का नहीं है यह भिक्षु।'– इस आक्रोश के साथ पर्यटक-दल आगे बढ़ गया।
सूर्य पश्चिम के अंचल में चला गया। रात फिर आ गई। अंधकार सघन हो गया। उस समय एक युगल आया। बाहर से आवाज दी, 'भीतर कौन है?' कोई उत्तर नहीं मिला। तीसरी बार फिर वही आवाज और भीतर से वही मौन। वह युगल भीतर गया। उसे मंडप के कोने में एक अस्पष्ट-सी छाया दिखाई दी। उसने निकट पहुंचकर देखा, कोई आदमी खड़ा है। वह क्रोधावेश से भर गया, 'भले आदमी! तीन बार पुकारा, फिर भी नहीं बोलते हो।' उसने असंख्य गालियां दीं और वह चला गया।' भगवान् ने सोचा, 'दूसरे के स्थान में जाकर रहना अप्रिय हो, यह आश्चर्य नहीं है। आश्चर्य यह है कि शून्य-स्थान में रहना भी अप्रिय हो जाता है। कटु वचन बोलना अप्रिय हो, यह अद्भुत नहीं है। अद्भुत यह है कि मौन रहना भी अप्रिय हो जाता है।'
'मुझे दूसरों के मन में अप्रीति उपजाने का निमित्त क्यों बनना चाहिए? यह जन-संकुल क्षेत्र है। मैं कहीं भी चला जाऊं, लोग आ पहुंचते हैं। कुछ लोग जिज्ञासा लिये आते हैं। मैं कम बोलता हूं, उससे वे चिढ़ जाते हैं। कुछ लोग एकान्त की खोज में आते हैं। मेरी उपस्थिति में उन्हें एकांत नहीं मिलता, इसलिए वे क्रुद्ध हो जाते हैं। कुछ लोग कुतूहलवश आते हैं। वे कोलाहल कर विक्षेप करते हैं। जब मैं अनिमेष दृष्टि से ध्यान करता हूं, तब स्थिर, विस्फारित नेत्रों को देखकर बच्चे डर जाते हैं। इस स्थिति में क्या यह अच्छा नहीं होगा कि मैं आदिवासी क्षेत्रों में चला जाऊं। वहां लोग बहुत कम हैं। वहां गांव बहुत कम हैं। पहाड़ ही पहाड़ हैं और जंगल ही जंगल। वहां न में किसी के लिए बाधा बनूंगा और न कोई दूसरा मेरे लिए बाधा बनेगा।'