धर्म है उत्कृष्ट मंगल

स्वाध्याय

धर्म है उत्कृष्ट मंगल

दशवैकालिक सूत्र की चूलिका में कहा गया है-
जत्थेव पासे कइ दुप्पउत्तं, काएण वाया अदु माणसेणं। 
तत्थेव धीरो पडिसाहरेज्जा, आइन्नओ खिप्पमिवक्खलीणं ।।
जहां कहीं भी मन, वचन और काया को दुष्प्रवृत्त होता हुआ देखे तो धीर साधु वहीं संभल जाए जैसे जातिमान् अश्व लगाम को खींचते ही संभल जाता है।
इस गाधा में दुष्प्रवृत्ति में संलग्न होते हुए मन, वचन और शरीर को वहां से हटाने का निर्देश किया गया है। यह बहिर्मुखता से अन्तर्मुखता की ओर प्रस्थान का अभ्यास है। सलक्ष्य इसका अभ्यास करने से आध्यात्मिक व्यक्तित्व का निर्माण हो सकता है। मोहनीय कर्म के उदय के कारण मन, वचन और काय सदोष होते रहते हैं। यह मोहोदय का प्रभाव है। जितना क्षयोपशम भाव प्रबल होगा, उसका प्रयोग होगा, मोहनीय का उदयभाव निर्बल होता चला जाएगा।
अन्तर्मुखी बनने के इस प्रयोग को आगमों में 'प्रतिसंलीनता' संज्ञा से अभिहित किया गया है। वहां निर्जरा के बारह भेदों में इसे छठा स्थान प्राप्त है। तत्त्वार्थ सूत्र में प्रतिसंलीनता के स्थान पर 'विविक्तशय्यासन' शब्द मिलता है। वहां इसका पांचवां स्थान और कायक्लेश का छठा स्थान रखा गया है। 
आगमों के अनुसार विविक्तशय्यासन प्रतिसंलीनता का एक प्रकार है, उसके बारह प्रकार और भी हैं-
परिभाषा
जैन सिद्धान्त दीपिका में प्रतिसंलीनता की परिभाषा इस प्रकार बतलाई गई है- 
'' इन्द्रियादीनां बाह्यविषयेभ्यः प्रतिसंहरणं प्रतिसलीनता''।
इन्द्रियों एवं मन आदि का बाह्य विषयों से प्रतिसंहरण करना, वहां से हटा लेना प्रतिसंलीनता है।
इसका तात्पर्यार्थ है गोपन करना, अशुभ प्रवृत्ति का निरोध और शुभ प्रवृत्ति में संलग्नता, एकाग्रता का प्रयोग।
भेद-प्रभेद
प्रतिसंलीनता के मुख्य चार प्रकार हैं- १. इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता २. कषाय-प्रतिसंलीनता ३. योग-प्रतिसंलीनता 
     ४. विविक्त शयनासन-सेवन। उत्तरभेद करने पर प्रतिसंलीनता तेरह प्रकार की हो जाती है। वे इस प्रकार हैं-
१. श्रोत्रेन्द्रिय विषय-प्रचार निरोध अथवा श्रोत्रेन्द्रिय विषयप्राप्त अर्थों में रागद्वेष-विनिग्रह।
२. चक्षुरिन्द्रिय विषय-प्रचार निरोध अथवा चक्षुरिन्द्रिय विषयप्राप्त अर्थों में रागद्वेष-विनिग्रह।
३. घ्राणेन्द्रिय विषय-प्रचार निरोध अथवा घ्राणेन्द्रिय विषयप्राप्त अर्थों में रागद्वेष-विनिग्रह।
४. रसनेन्द्रिय विषय-प्रचार निरोध अथवा रसनेन्द्रिय विषयप्राप्त अर्थों में रागद्वेष-विनिग्रह।
५. स्पर्शनेन्द्रिय विषय-प्रचार निरोध अथवा स्पर्शनेन्द्रिय विषयप्राप्त अर्थो में रागद्वेष-विनिग्रह।
उपरिनिर्दिष्ट पांच प्रकार इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता के हैं। यह इन्द्रिय विजय की साधना अन्तर्मुखी बनने के लिए अनिवार्य है। उसका अभ्यास करने के दो प्रयोग निर्दिष्ट हैं। पहला प्रयोग है– इन्द्रियों की प्रवृत्ति को रोक देना, जैसे न सुनना, न देखना, न सूंघना, न खाना-पीना और न स्पर्श करना। इस प्रकार बार-बार इन्द्रिय-निरोध करना। दूसरा प्रयोग है रागद्वेष-विनिग्रह। इसमें इन्द्रियों की प्रवृत्ति का निरोध नहीं किया जाता, किन्तु ज्ञाता-द्रष्टा भाव का अभ्यास किया जाता है। साधक केवल सुनता है, केवल देखता है, रागद्वेष अथवा प्रियता-अप्रियता के भाव से मुक्त रहता है। आयार चूला में निर्दिष्ट है-
ण सक्का ण सोउं सद्दा सोयविसयमागया।
रागदोसा उ जे तत्य ते भिक्खू परिवज्जए।।
कान में पड़ने वाले शब्दों को न सुनना शक्य नहीं है, किन्तु उनमें राग-द्वेष का परिवर्जन किया जाए। इसी प्रकार शेष इन्द्रियों के बारे में यथायोग्य ज्ञातव्य है।
कषाय-प्रतीसंलीनता 
६. क्रोधोदय-निरोध अथवा उदयप्राप्त क्रोध का विफलीकरण।
७. मान-उदय-निरोध अथवा मान का विफलीकरण।