अध्यात्म की साधना से अनाबाध सुख प्राप्त हो सकता है : आचार्यश्री महाश्रमण
भीलवाड़ा, 14 सितंबर, 2021
तीर्थंकर के प्रतिनिधि आचार्यश्री महाश्रमण जी ने पावन प्रेरणा प्रदान करते हुए फरमाया कि ठाणं आगम में कहा गया हैआदमी और प्राणी सुख पाने की इच्छा रखता है। शास्त्रकार ने सुख के दस प्रकार बताए हैं।
दस सुखों में पहला आरोग्य, निरोगता एक सुख है। पहला सुख निरोगी काया। शरीर निरामय रहता है तो साता रहती है। दूसरा सुख हैदीर्घ आयुष्य। लंबा जीवन-काल प्राप्त करना भी अच्छे रूप में प्राप्त करना होता है।
तीसरा सुख हैआध्यता, गृहस्थ का जीवन हो। धन की प्रचुरता का होना भी सुख है। घर में माया हो। चौथा सुख हैकाम, पाँचवा सुख है भोग। पाँच इंद्रिय विषय है, इनमें शब्द और रूप काम कहलाते हैं, वर्ण, गंध, स्पर्श भोग कहलाते हैं। दो इंद्रियाँ कामी हैं, तीन इंद्रियाँ भोगी हैं। श्रोतेंद्रिय, चक्षुरिन्द्रिय को कामी और घ्रणेन्द्रिय, रसेंद्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय को भोगी कहा गया है।
छठा सुख हैसंतोष। छठा सुख आध्यात्मिक स्तर का सुख है। मोह ग्रस्त मूढ़ लोग हैं, वे असंतोष में जीने वाले होते हैं। पंडित ज्ञानी है, अध्यात्मिक रूप से ज्ञानी है, वे संतोष को धारण करने वाले होते हैं।
संतोष प्राधान्य जीवन जीने वाला उत्तम पुरुष होता है। निरोग रहना मनुष्यता का सार है। धर्म का सार हैसत्य। विद्या निश्चय सार है। सुख का सार हैसंतोष। सातवाँ सुख हैअस्ति, मेरे पास है। जब-जब जो प्रयोजन होता है, उसकी तब-तब पूर्ति हो जाना। आठवाँ सुख हैशुभ भोग। रमणीय विषयों का भोग करना।
नौवाँ सुख बहुत आध्यात्मिक हैनिष्क्रमण करना। प्रव्रज्या सुख, साधु को जो सुख होता है, वो उच्च सुख होता है। राजा के राजा को जो सुख नहीं मिले, देवराज इंद्र को भी वो सुख नहीं मिले, वे सुख यहाँ साधु को प्राप्त हो सकता है।
दसवाँ सुख तो परम सुख बता दियाअनाबाध। जन्म-मृत्यु आदि बाधाओं से रहित मोक्ष का जो सुख है, वो परम सुख है। इन दसों सुखों में अनाबाध तो शुद्ध आत्मिक सुख है। प्रव्रज्या व संतोष भी आध्यात्मिक स्तर का सुख है। सात सुख भौतिक सुख है। अनाबाध सुख के लिए कहा गया है कि मनुष्यों और सब देवों को वह सुख नहीं मिलता, जो सुख अन्याबाध स्थिति को प्राप्त सिद्धों को जो सुख मिलता है।
आरोग्य तो मध्यम कोटि का सुख है। स्वास्थ्य अच्छा है, तो आदमी परिश्रम कर सकता है। यह सुख साधु को भी चाहिए और गृहस्थों को भी चाहिए। दीर्घ आयुष्य भी एकदम भौतिक सुख भी नहीं, आध्यात्मिक विकास है, लंबा आयुष्य प्राप्त हो। आध्यता काम भोग, अस्ति भी भौतिक सुख है। हमारा अनाबाध सुख पाने का लक्ष्य रहे।
अनाबाध सुख का कारण है, प्रव्रज्या लेना, निष्क्रमण करना। सम्यक्त्व भी अनाबाध की ओर बढ़ाने वाला सुख है। चारित्र और सम्यक्त्व अनाबाध सुख के हेतु हैं। इन दस सुखों में जो परम सुख है, उस अनाबाध सुख के इच्छावान, लक्ष्यवान, पुरुषार्थवान रहें, उस दिशा में आगे बढ़ते रहें। अध्यात्म की साधना के द्वारा अनाबाध सुख प्राप्त हो सकता है। पूज्यप्रवर ने तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए।
पूज्यप्रवर की सन्निधि में जैन योग संदर्भ कोष ग्रंथ का लोकार्पण, जो जैन विश्व भारती से प्रकाशित है एवं निर्देशन दामोदर शास्त्री, प्रधान संपादक समणी भाष्कर प्रज्ञा है, समर्पित किया गया। पूज्यप्रवर ने फरमाया यह जैन योग संदर्भ कोष साधारण ग्रंथ नहीं लग रहा है। थोड़ा विशिष्ट कोटि का महत्त्वपूर्ण ग्रंथ प्रतीत हो रहा है। जैन योग के बारे में इसमें सामग्री प्राप्त हो रही है। अच्छा पठनीय ग्रंथ प्रतीत हो रहा है। मुख्य नियोजिका जी ने कहा कि अज्ञानी व्यक्ति के पास अंधकार ही अंधकार रहता है। उसमें हेय, गेय, उपादेय की चेतना नहीं रहती है। स्वाध्याय एक तप है। तप के साथ ज्ञान का भी विकास होता है।
दिल्ली विधानसभा के स्पीकर रामनिवास गोयल पूज्यप्रवर की सन्निधि में दर्शनार्थ पधारे। उन्होंने अपनी भावना अभिव्यक्त की।
पूज्यप्रवर ने फरमाया कि गुरुदेव तुलसी ने अणुव्रत की बात को आगे बढ़ाया था। एक राष्ट्र के लिए भौतिक विकास की भी अपेक्षा होती है, साथ में आर्थिक विकास भी चाहिए। इन दो के अलावा तीसरा विकास है, नैतिकता का विकास वह भी राष्ट्र के लिए आवश्यक है। राष्ट्र में आध्यात्मिकता का विकास भी हो। शिक्षा का विकास भी आवश्यक हे। ये सारे विकास होते हैं, तो राष्ट्र अच्छा विकास कर सकता है।
कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।