संवाद भगवान से...
मुख्यमुनिश्री- गुरुदेव आपकी साधनाकाल के ये पचास वर्ष। इसमें आपने अनेक विशेष अनुभूतियां की हैं। हम जानना चाहते हैं कि इन पचास वर्षों में पूज्य गुरुदेव की विशेष अनुभूतियां क्या रही हैं?
आचार्यप्रवर - आज के दिन दीक्षा हुई थी, मुनि श्री सुमेरमलजी 'लाडनूं' से दीक्षा प्राप्त हुई थी। पचास वर्षों के बाद आज का दिन आया है। इन पचास वर्षों में कुछ साधना के प्रयोग भी किये, ध्यान-साधना में भी समय लगाया। इसके साथ अध्ययन, सीखना, स्वाध्याय इसमें भी रूचि रही। कंठस्थ करना, चितारना, सीखना ऐसे काम चलते रहे। गुरुदेव तुलसी के पास रहने का अच्छा मौका मिला। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी के तो और ज्यादा, युवाचार्य के रूप में भी, पास रहने का मौका मिला। गुरुओं का सान्निध्य मिला और भी रत्नाधिक संतो के पास रहने का मौका मिला और प्रेरणा मिली। फिर कुछ क्षयोपशम होता होगा, अपने भीतर में यह करना, यह संकल्प करना, इस रूप में चलना, पढ़ना और कहीं निष्पृहता का भाव और जैसा मैंने कहा छद्मस्थ हैं तो गलतियां प्रमाद, कषाय का भाव ये तो संभव हैं। फिर भी वो वैराग्य का चिराग, वैराग्य की चिनगारियां इतनी प्रज्जवलित होती रही, हुई है। किसी संत को देखा कि ये ऐसे हैं, मैं भी इस बात पर ध्यान दूं। मैं भी इस बात को ग्रहण करूं, यों अनेक संतों के पास रहने का, सीखने का, बड़े संतों का संरक्षण मिला, प्रेरणा मिली। किसी संत ने कहा कि कोयला खायेगा उसका मुंह काला होगा, जहर पीयेगा वो मरेगा, जो गलतियां करेगा वो काला होगा। दूसरे गलतियां करें तो करें, हमें गलतियां नहीं करनी, ऐसी अनेक प्रेरणाएं मिलती रही। मुझे भी पचास वर्षों में कईयों से प्रेरणा प्राप्त करने का, फिर आगम आदि ग्रंथ स्वाध्याय से तो कुल मिलाकर कुछ-कुछ संकल्प की चेतना जागी। इस बात पर अडिग रहना, इस रास्ते पर चलना, इस तरह के संकल्प जागे। इस तरह पचास वर्ष सम्पन्न हो गये हैं और भी आगे संयम जितना निर्मल रह सके वह मेरी कामना है।
मुख्यमुनिश्री- भंते ! बचपन में आप खेलते कूदते थे, तब आपकी मां कहती कि तुम मेरे साथ चलो, इधर मत रहो। वे संतों के ठिकाने ले जाती। कई बच्चे बोलते हैं वहां जाने से बोरियत महसूस होती है, जब प्रथम बार आपकी मातुश्री आपको संतों के ठिकाने लेकर गयी तो वहां जाकर आपको बोरियत महसूस नहीं हुयी क्या? आपकी संतों के प्रति इतनी रूचि कैसे जागृत हो गयी कि बिना वैरागी आपने इतने-इतने थोकड़े कंठस्थ कर लिए, यह सब कैसे संभव हुआ?
आचार्यप्रवर - जहां तक मेरी स्मृति है, हम बच्चे थे, घर में थोड़ा लड़ाई-झगड़ा हो जाता तो मेरी संसारपक्षीय मां जो महाराज के ठिकाने जाया करती वो कहती तुम मेरे साथ चला करो। वहां जाने से संत-संतियों के सम्पर्क में आया। मुनिश्री पानमलजी थोड़ा सिखाया करते। पिछले जन्मों के संस्कारों से संतों से एक लगाव हो गया। थोड़े समय में ही साधु बनने का निश्चय कर लिया। फिर मैं अन्तर की रूचि से संतों के यहां जाने लगा।
मुख्यमुनिश्री - भंते! जब गुरुदेव हिन्दी माध्यम स्कूल में पढ़े थे। दीक्षा के बाद संस्कृत भाषा का व अंग्रेजी भाषा का विशेष अध्ययन किया। दोनों भाषाएं अलग सी दिशाओं में जाती हुई दिखाई देती है। तो परम पूज्य गुरुदेव ने इतना शीघ्रता से किस प्रकार संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं पर एक कमांड स्थापित कर ली? इसका क्या रहस्य है? इतना शीघ्रता से विकास कैसे हो गया?
आचार्यप्रवर - दीक्षा के बाद में मैंने दसवेंआलियं तो जल्दी सीख लिया फिर संस्कृत के कालूकौमुदी और नाम माला इनको सीखा। इनकी साधनिका करने में मुझे कई वर्ष संस्कृत का अध्ययन करने का मौका मिला। फिर थोड़ा दिमाग भी खुलता गया। कालू कौमुदी कंठस्थ की, कालू कौमुदी के उत्तरार्ध में ऊणादी के दस पृष्ठ हैं उनको मैंने कंठस्थ नहीं किया, बाकी संभवतः पूरी कालू कौमुदी मैंने वृत्ति सहित कंठस्थ की। पूरी नाम माला को याद कर लिया। ये दो तैयार हो जाये तो संस्कृत का एक आधार हो सकता है। फिर कुछ ग्रन्थों को पढ़ा। थोड़ा क्षयोपशम का ही मानले कि संस्कृत में यूं काफी दिमाग खुल गया। व्याकरण की दृष्टि से अशुद्धि पकड़ में आ जाती। भिक्षुशब्दानुशासनम् को मैंने प्रायः कंठस्थ करने का प्रयास किया। हालांकि मैं अपने आप को संस्कृत का बहुत ज्यादा विद्वान नहीं मानता परन्तु भूल न हो, यहां जो संत हैं उनमें प्रायः किसी से कम अध्ययन भी मेरा नहीं है।
अंग्रेजी को सीखने में बहुत समय लगाया। दीक्षा लेने से पहले ही अंग्रेजी का अध्ययन शुरू हो गया था। जब-जब मौका मिलता भंवरलालजी बैद सरदारशहर वाले आ जाते, कोई टीचर या अन्य मिल जाता। दोनों गुरुओं का भी कहना था कि अंग्रेजी भाषा अच्छी हो जाए। उनकी प्रेरणा, उनकी व्यवस्था, मेरा कुछ पुरूषार्थ कि आज कोई पत्र अंग्रेजी का आ जाये तो दूसरों को बुलाने की अपेक्षा नहीं पड़ती। ज्यादा अध्ययन नहीं है, काम चल जाता है।
मुख्यमुनिश्री - पूज्य गुरुदेव अनेक बार साधु-साध्वियों की, श्रावक-श्राविकाओं की ज्ञान चर्चा होती है। अनेक मिटिंग होती है, उनमें अनेक जिज्ञासाएं व अनेक बातें आती है। उनको आप अकाट्य तर्क के द्वारा उनका निराकरण कर लेते हैं। प्रबल क्षयोपशम से तर्क के द्वारा उसको निरस्त कर देते हैं। मेरे मन में जिज्ञासा है कि भगवान! आपने किसी तर्क शास्त्र का विशेष अध्ययन किया था या ये आपका साधना का प्रभाव है या ज्ञानावरणीय क्षयोपशम का प्रभाव है?
आचार्यप्रवर - दुनिया में कितने बड़े-बड़े ज्ञानी तार्किक हैं। तर्क शास्त्र जैसे भिक्षु न्याय कर्णिका थोड़े-थोड़े पढ़े हैं। पर बहुत ज्यादा तर्क की दृष्टि से इतनी बात नहीं है। थोड़ी भीतर की एक चेतना रही है उस चेतना के आधार पर मैं कुछ तार्किक दृष्टि से बात को प्रस्तुत करने का और कुछ भीतर का भाव समर्पण है कि मैं बात को तर्क संगत रूप में बताने का और अपनी बात को प्रस्तुत करने का और कहीं दूसरे की बात खंडन करने का भी प्रयास करता हूं। पांच चीजें न्याय में आती है- प्रतिज्ञा, हेतू, दृष्टान्त यूं पांच हैं, मुख्य ये तीन बात है। मेरा यह चिंतन है कि कोई बात कहनी हो उस बात से मैं सहमत हूं या नहीं। बिना सहमति वाली बात कहूं ही नहीं, फिर उसके ये हेतु हैं और ये उदाहरण है। किसी काम के लिए क्या, क्यूं और कैसे इन प्रश्नों के आलोक में किसी की बात को देख ले।