समस्त प्राणियों के प्रति रखें अभय का भाव : आचार्यश्री महाश्रमण
जिन शासन प्रभावक आचार्य श्री महाश्रमण जी ने देवलगांव मही में पावन प्रेरणा प्रदान कराते हुए फरामाया कि हमारे भीतर भय की संज्ञा होती है। हम कई बार विभिन्न परिस्थितियों से डर सकते हैं। कई लोग सघन अंधकार से, स्वयं की शारीरिक व्याधि से या दूसरों की व्याधि की बात सुनने से भयभीत हो सकते हैं। भूत-प्रेत, चूहे या बिल्ली से भी कोई-कोई डर जाता है। मनुष्य में भय की संज्ञा होती है तो दूसरों को डराने की भी वृत्ति-प्रवृत्ति आदमी में हो सकती है। दानों में सबसे बड़ा, श्रेष्ठ दान अभयदान बताया गया है। व्यक्ति ना खुद डरे ना किसी अन्य को डराए। समस्त प्राणियों के प्रति अभय का भाव रखें।
एक प्रसंग के मध्य आचार्य प्रवर ने फरमाया कि ध्यान की साधना भी अध्यात्म का प्रयोग है। तन की चंचलता को रोककर बाहर की दुनिया से हटकर भीतर में देखना ध्यान है। ध्यान की अनेक पद्धतियां चलती हैं। हमारे यहां गुरुदेव तुलसी के समय आचार्यश्री महाप्रज्ञ द्वारा प्रेक्षाध्यान की साधना प्रचलित हुई। आत्मा की शुद्धि के लिए जो ध्यान का प्रयोग होता है, वो अध्यात्म की दिशा में आगे बढ़ने का प्रयोग है। ध्यान के साथ जीवन शैली अच्छी हो, साथ में संयम भी हो तो यह मानव जीवन सार्थक हो सकता है। जैसे शरीर में शीर्ष का स्थान है, वृक्ष में मूल का स्थान है, वैसे ही सर्व साधु धर्म में ध्यान को महत्वपूर्ण कहा गया है। बाहर में जीते हुए भी आदमी भीतर में रहने का प्रयास करे, राग-द्वेष मुक्त रहने का प्रयास करे। साधु को अहिंसा मूर्ति, दयामूर्ति, क्षमामूर्ति, समतामूर्ति होना चाहिये।
‘तनकर, मनकर, वचन कर, देतन काहु दु:ख।
तुलसी पातक झड़त है, देखत वाको मुख।'
छः काय के जीवों की हिंसा का त्याग करना और त्याग पालना अभय दान है। दुनिया में कोरी हिंसा ही नहीं है, अहिंसा भी है। यह दुनिया का भाग्य है इतने संत दुनिया में रहते हैं जो अहिंसा की बातें बताने वाले होते हैं। गृहस्थ भी ज्यादा से ज्यादा अभय दाता बनें। अभय के दो अर्थ कर देता हूँ- एक तो खुद अभय रहें और दूसरा - दूसरों को भी अभय दान दें। न खुद डरना, न दूसरों को डराना। डरने वाला आदमी हिंसा में भी जा सकता है, झूठ भी बोल सकता है। अहिंसा और सच्चाई की साधना के लिए हमें अभय की साधना करनी चाहिए। अभय के साथ विनीत भी बनें। जो अभय बन जाता है, वह उत्कृष्ट सुखी आदमी हो सकता है।
देउलगांव मही प्रवास के संदर्भ में पूज्य प्रवर ने फरमाया कि बड़े संत समागम का होना भी गांव के लिए भी अच्छी बात होती है। ‘सुत, दारा अरु लक्ष्मी पापी के भी होय, संतसमागम हरि कथा तुलसी दुर्लभ दोय।’ संतों की संगत कल्याणकारी हो सकती है। पवित्र आत्मा का गाँव में आना दीपावली, दशहरा के उत्सव सा हो सकता है। मनुष्य का जीवन आध्यात्मिकता की दिशा में आगे बढ़े, यह कल्याणकारी बात हो सकती है। हमारे नव दीक्षित मुनि चिन्मय कुमार के संसारपक्ष से जुड़ा यह गांव है। साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभाजी ने कहा कि दुनिया में पैसा, प्रतिष्ठा, पद व्यक्ति को अच्छा बना सकता है पर जिसके पास अच्छा चरित्र होता है, वह व्यक्ति सबसे उत्तम होता है। आचार्य प्रवर का गांव-गांव, नगर-नगर में लोग स्वागत करते हैं उसका कारण है - आचार्यप्रवर का चरित्र। चरित्र से व्यक्ति का आभामंडल अलौकिक बन जाता है। आभामंडल के प्रभाव के कारण लोग स्वयं उससे आकर्षित हो जाते हैं।
मुनि चिन्मय कुमार जी ने अपनी जन्मभूमि में पूज्यवर का भाव भरा स्वागत किया। तेरापंथ महिला मंडल, स्थानकवासी महिला मंडल, स्थानीय सभा की ओर से राजेन्द्र आंचलिया, कन्या मंडल, गांव की बहन-बेटियों, आशुतोष गुप्ता आदि ने अपने भावों की प्रस्तुति दी। ज्ञानशाला की सुन्दर प्रस्तुति हुई। मुंबई हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश कमल किशोर तातेड़, अशोक कोटेचा, अजीत बेंगानी, स्थानीय एमएलए राजेन्द्र सिंघने ने भी अपनी भावना अभिव्यक्त की। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमार जी ने किया।