मन रूपी दुष्ट अश्व पर लगाएं श्रुत ज्ञान की लगाम : आचार्यश्री महाश्रमण
तीर्थंकर के प्रतिनिधि आचार्यश्री महाश्रमणजी ने पावन प्रेरणा प्रदान कराते हुए फरमाया– आर्हत् वांग्मय में एक आगम है- उत्तरज्झयणाणि। उसके तेईसवें अध्ययन में केशी और गौतम का संवाद प्रस्तुत किया गया है। उस संवाद के अंतर्गत केशीकुमार गौतम से अनेक प्रश्न संभवत: पूछते हैं। एक प्रश्न पूछा गया कि एक दुष्ट अश्व दौड़ रहा है और गौतम! तुम उस दुष्ट अश्व पर आरूढ़ हो तो क्या वह दुष्ट अश्व तुम्हें उन्मार्ग में नहीं ले जाएगा? प्रश्न होता है यह दुष्ट अश्व कौनसा है? हमारा जो मन है, वह एक प्रकार का घोड़ा है। इसे दुष्ट अश्व इसलिए कहा जा सकता है कि मन में मलिन विचार भी आते हैं, मन के कारण आदमी कहां से कहां चला जाता है। यह मन रूपी घोड़ा आदमी को उन्मार्ग में भी ले जाने वाला हो सकता है। गौतम ने उत्तर दिया कि यह घोड़ा भले दुष्ट है, परन्तु ये संयम की चेतना दुष्ट घोड़े को भी वश में कर सकती है। मैंने इस दुष्ट अश्व को एक लगाम के द्वारा बांध रखा है। वो लगाम है- श्रुत ज्ञान रूपी लगाम। आदमी में विवेक चेतना होती है तो मन को भटकने नहीं देता है। इतनी धर्म की शिक्षा मन को दे रखी है कि उससे वह उत्तम जाति का अश्व बन गया, दुष्ट अश्व नहीं रहा।
यह दुष्ट अश्व हमें भी उत्पथ पर नहीं ले जाये इसलिए इसको श्रुत रूपी लगाम से बांधना अपेक्षित है। धर्म शिक्षा के द्वारा इसको इतना प्रशिक्षित कर दें कि यह दुष्ट रहे ही नहीं, उत्तम जाति का अश्व बन जाये। आखिर मन हमारा नौकर ही तो है। विवेक से हमें उस पर नियंत्रण रखना है। मन से अच्छा निर्णय हो सकता है तो गलत विचार भी आ सकते हैं। जो मन रहित प्राणी होते हैं वे न तो ज्यादा बढ़िया काम कर सकते हैं न ज्यादा घटिया काम कर सकते हैं। धर्म या पाप का ज्यादा काम मन वाला प्राणी ही करता है। मन वाला प्राणी ही विकसित प्राणी होता है। सातवीं नारकी में पुरुष संज्ञी प्राणी ही जाते हैं। विशेष साधना के प्रयोग पुरुष साधु ही कर सकते हैं। मन: पर्याप्ति और मनोबल प्राण विकास का प्रारूप है। हम मन की चंचलता को कम करने का प्रयास करें। ध्यान साधना भी मन की चंचलता को कम करने का एक माध्यम बन सकती है। पूज्यप्रवर के स्वागत में प्रमोद चंडालिया, सुनीता उत्सव कोटेचा ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमार जी ने किया।