पापों से बचने से दुःख का मूल भी हो सकता है उन्मूलित : आचार्यश्री महाश्रमण
अध्यात्म जगत के महान योगी आचार्य श्री महाश्रमणजी ने मराठवाड़ा से विदर्भ क्षेत्र में प्रवेश किया। पावन प्रेरणा पाथेय प्रदान कराते हुए पूज्य प्रवर ने फरमाया कि मनुष्य के जीवन में हिंसा पूर्ण व्यवहार भी हो सकता है और अहिंसा की आराधना भी प्रकट हो सकती है। हिंसा की वृत्ति होती है, फिर प्रवृत्ति भी हो जाती है। समरांगण में युद्ध होता है, वह युद्ध तो बाद में होता है पहले आदमी के भावों में, दिमाग में युद्ध हो जाता है।
दयावान आदमी कई पापों से अपने आप को सुरक्षित रख सकता है। दया के अभाव के कारण हिंसा हो सकती है, आदमी अपराध में चला जा सकता है। जिसके मन में दया-अनुकम्पा की चेतना है वह पाप कर्मों से बच सकता है। दुःख का कारण पाप कर्म होता है, पुराने पाप कर्म जब उदीर्ण होते हैं, प्राणी कष्टानुभूति कर लेता है। पापों से बचने से कभी दुःख का मूल भी उन्मूलित हो सकता है। यदि मुझे दुःख अप्रिय हैं तो औरों को भी दुःख अप्रिय है, इसलिए मैं किसी को कष्ट नहीं दूँ। जो कष्टापतित हैं उनको भी धार्मिक-आध्यात्मिक संबल सहयोग प्रेरणा दी जाती है, आध्यात्मिक चित्त समाधि पहुंचाने का प्रयास किया जाता है तो यह भी दया का एक रूप हो सकता है। पाप के आचरणों से आत्मा की रक्षा भी करना लोकोत्तर दया है।
''दया दया सहु को कहे ते दया धर्म छे ठीक।
दया ओळख ने पाळसी त्याने मुगत नजीक।।''
आचार्य भिक्षु के ग्रन्थों में दया-अनुकम्पा पर विश्लेषण भी हुआ है। कौनसी दया किस प्रकार की है? कौनसी दया जिन आज्ञा में है? कौनसी दया जिनाज्ञा बाहर है? कौनसी दया लोकोत्तर है, कौनसी दया लौकिक है? हमारे मन में दया की भावना रहे, चित्त में अनुकम्पा का भाव रहे। कोई पशु भी दयावान हो सकता है। भगवान महावीर के पास मुनि मेघ साधुपन छोड़ने के उद्देश्य से उपस्थित हुआ। गिरते को संभाल लेना बहुत विशेष बात होती है। भगवान ने मुनि मेघ को संभाला, भगवान महावीर का प्रतिबोध मिला और मुनि मेघ को जाति स्मृति ज्ञान हो गया। वह पुनः भगवान के प्रति समर्पित हो गया।
कई बार पशु भी बिना मतलब किसी को तकलीफ नहीं देते, कोई छेड़ देता है तो दूसरी बात है। यह भी अहिंसा की चेतना है। आदमी में भी अहिंसा की चेतना देखने को मिलती है। अहिंसा-शांति से अगर काम हो सके तो हिंसा, शस्त्र इन चीजों का प्रयोग क्यों करें? अहिंसा तो एक प्रकार की भगवती है। हमारे व्यवहार में, चिन्तन में अहिंसा के स्फुलिंग रहे, अहिंसा की अग्नि प्रज्जवलित होती रहे। अहिंसा का अमृत रूपी जल हिंसा को बुझाने वाला है। अहिंसा, दया, करुणा की भावना हम सभी में रहें और हम कल्याण की दिशा में आगे बढ़ें यह काम्य है।
आज यहां देउलगांव राजा में आये हैं। राजा वह है, जो अपने मन को वश में कर ले। यहां के लोग भी मन के राजा बनें रहे। पूज्यप्रवर के स्वागत में रूपा मांडोत, तृषा मांडोत, दिगंबर समाज से शांतिलाल दादा चिंगलकर, मनीष कोटेकर, स्थानकवासी समाज से उदय छाजेड़ ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। स्थानीय महिला मंडल ने स्वागत गीत का संगान किया। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।