कषायों को क्षीण कर बनें जन्म-मरण की परम्परा से मुक्त : आचार्यश्री महाश्रमण
अध्यात्म साधना के सुमेरू आचार्य श्री महाश्रमणजी ने आर्हत् वाणी की अमृत वर्षा कराते हुए फरमाया कि आगम वाङ्गमय में पुनर्भव की चर्चा की गयी है। पुनर्भव और पुनर्जन्म एक ही बात है। प्रश्न होता है कि आत्मा पुनर्जन्म क्यों लेती है? हम जन्म-मरण की परम्परा से मुक्त होने की बात सोचते हैं, मोक्ष जाना चाहते हैं। मोक्ष जाने का मतलब है कि जन्म-मरण की परम्परा का अंत हो जाना।
सामान्यतया कारण के बिना कार्य नहीं होता है। कार्य को समाप्त करना है तो उसके कारण को समाप्त करना अपेक्षित है। जन्म-मरण होने के कारण की जानकारी हमें हो जाए और उस कारण को हम नष्ट कर दें तो जन्म-मरण भी अपने आप नष्ट हो सकते हैं। जनक नहीं रहेगा तो जन्य होगा भी कैसे?
शास्त्रकार ने कारण बताया है कि हमारे भीतर क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय है। क्रोध और मान पर नियंत्रण नहीं होता है, माया और लोभ प्रवर्धमान होते हैं, ये चार कषाय पुनर्भव के मूल हैं, उनको सिंचन देने वाले हैं। हम समस्या के कारण पर ध्यान दें, चारों कषाय क्षीण हो जायेंगे तो फिर कभी जन्म नहीं होगा। पुनर्जन्म का सिद्धांत अध्यात्म का आधारभूत सिद्धांत है। पुनर्जन्म के साथ कर्मवाद भी जुड़ा हुआ है। कर्म के अनुसार फल भोगना पड़ता है। सकर्मा आत्मा के जन्म-मरण होता है। हम ऐसे कार्य न करें जिससे हमारे पुनर्जन्म का बंध हो। पापों से बचें तथा संवर और निर्जरा की साधना करें, संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करने का प्रयास करें।
मोक्ष जाने के लिए वीतरागता आवश्यक है। हम चार कषायों को क्षीण करने का प्रयास करें, कषायों को पतला करें। जब तक अनन्तानुबंधी कषाय का उदय है तो सम्यक्त्व की प्राप्ति भी नहीं हो सकती। कषाय और चार अघाति कर्मों का क्षय हो जाता है, तो फिर तो मानो मोक्ष तैयार है। मोक्ष में जाने के लिए एक समय ही लगता है। लोक के अग्रभाग में आत्मा स्थित हो जाती है। मोक्ष के लिए धर्म-अध्यात्म की साधना करें। गुरुओं से अध्यात्म दर्शन, सन्मार्ग दर्शन, आत्म दर्शन की बात प्राप्त होती है, उनकी बतायी बातों पर चलकर जन्म-मरण की परम्परा से मुक्त होने का प्रयास करें।