धर्म है उत्कृष्ट मंगल
८. माया-उदय-निरोध अथवा उदयप्राप्त माया का विफलीकरण।
६. लोभ-उदय-निरोध अथवा उदयप्राप्त लोभ का विफलीकरण।
अन्तर्मुखी बनने के लिए कषाय-मुक्ति की साधना आवश्यक है। उसके भी दो प्रयोग हैं- क्रोध, मान, माया और लोभ का उदय हो ही नहीं, ऐसा अभ्यास करना। ऐसी स्थितियों से बचना जिनसे क्रोध आदि के भाव उत्पन्न हों। दूसरा प्रयोग है- क्रोध आदि का उदय होने पर उन्हे विफल अथवा असफल कर देना, जैसे किसी स्थिति में क्रोध का भाव उत्पन्न हो गया, तत्काल संकल्प- शक्ति, दीर्घ श्वास, मौन, विधायक चिन्तन आदि के द्वारा क्रोध की ज्वाला को शान्त कर देना। क्रोध के फल न लग सकें। कठोर शब्द बोलना, पीटना, मारना आदि क्रोध के फल हैं, यह स्थिति पैदा होने से पूर्व ही साधक क्रोध के भाव को क्षमा में परिणत कर दे।
कषाय मुक्तिः किल मुक्तिरेव
बहिन चन्द्रेश्वरी धार्मिक संस्कारों में पली हुई महिला थी। संकट की घड़ियों में वह धर्म को ही अपना सहारा मानती थी। रजत कुमार उसका इकलौता पुत्र था। एक बार वह विदेश यात्रा के लिए गया। निश्चित अवधि पूरी हो जाने के बाद भी उसका प्रत्यागमन नहीं हुआ। मां अपने पुत्र की चिंता से बेचैन थी। उसने मन ही मन संकल्प किया कि यदि मेरा प्राणप्रिय पुत्र शीघ्र ही घर लौट आयेगा तो मैं एक संन्यासी को अपने घर पर भोजन करवाऊंगी। दूसरे ही दिन सूर्योदय के समय पुत्र घर पर पहुंच गया। मां ने अपार खुशी का अनुभव किया। उसने अपना पूर्वकृत संकल्प पुत्र के समक्ष अभिव्यक्त किया।
रजत कुमार दो क्षण सोचकर बोला– मां यदि तुम संन्यासी को भोजन करवाना चाहती हो तो किसी मृत संन्यासी को भोजन करवाओ।
मां ने विनोद समझकर पुत्र की बात सुनी अनसुनी कर दी। वह एक संन्यासी के पास गई और उसे भोजन के लिए निमंत्रण दिया।
संन्यासी ठीक समय पर चन्द्रेश्वरी के घर के पास पहुंचा। घर के मुख्य द्वार पर रजतकुमार बैठा हुआ था। ज्योंही सन्यासी घर में प्रवेश करने लगा, उसने गालियों द्वारा संन्यासी का अपमान किया एवं गृह प्रवेश के लिए निषेध किया।
इस अपमानपूर्ण व्यवहार से संन्यासी भी तिलमिला उठा। उसने भी दो-चार गालियां निकालीं और वह उन्हीं पैरों लौट गया।
दूसरे दिन चन्द्रेश्वरी ने फिर एक संन्यासी को भोजन के लिए निमंत्रण दिया। नियत समय पर संन्यासी गृहद्वार पर पहुंचा। कल की तरह आज भी रजतकुमार घर के दवार पर बैठा हुआ था। उसने अपमान-भरे शब्दों में संन्यासी का तिरस्कार किया। संन्यासी गुस्से में आग-बबूला होकर उस युवक को अभिशाप देकर चला गया।
तीसरे दिन चन्द्रेश्वरी ने फिर एक साधु को भोजन के लिए निमंत्रित किया। संन्यासी नियत समय पर घर पर पहुंचा। रजतकुमार ने उसका भी गालियों से स्वागत किया। संन्यासी कुछ देर तक मौन रहा और फिर शान्त स्वर से बोला वत्स! तुम्हारी मां के निमंत्रण पर मैं यहां आया हूं। मेरा आगमन यदि तुम्हें अप्रिय लगता है तो मैं वापस जा रहा हूं। यों कहकर बाबा मुड़ा और अपने गन्तव्य की ओर बढ़ने लगा। रजत कुमार पीछे से आकर उसके चरणों में गिर पड़ा और बोला- मुनि पुङ्गव! संत बहुत देखे, पर आप जैसे क्षमावान संत धरती पर विरल ही होते हैं। आप जैसे बाबा आदर्श पुरुष होते हैं। आप मेरे अविनय के लिए मुझे क्षमा करें एवं मेरे घर पर भोजन लेकर मुझे कृतार्थ करें।
रजत कुमार बाबा के साथ अपने घर पर आया एवं अपनी मां से बोला– मां! मैं एक मृत संन्यासी को भोजन के लिए ले आया हूं।
'बेटे! यह तो जीवित है।'
'मां! यह शरीर से जीवित है, पर इसका कषाय मर चुका है। इसके दोष नष्ट हो चुके हैं। यह मर चुका है मां! तुम इसे भोजन कराओ। तुम्हारा संकल्प पूरा हो जायेगा।' जिसके कषाय मर जाते हैं, दोष विलीन हो जाते हैं, वह मरकर भी अमर हो जाता है। धन्य है वह नरपुंगव।