शुद्ध, निर्मल विषय में एकाग्रता हो सकती है धर्म के अर्जन का कारण: आचार्यश्री महाश्रमण
तीर्थंकर के प्रतिनिधि परम पूज्य आचार्यश्री महाश्रमणजी ने पावन प्रेरणा पाथेय प्रदान कराते हुए फरमाया कि ध्यान अध्यात्म साधना का एक अंग है। ध्यान पाप कर्म बन्ध का भी एक साधन बन सकता है। ध्यान अर्थात चिन्तन। एक आलंबन पर मन को केंद्रित कर देना अथवा मन, वचन, काय की प्रवृत्तियों का निरोध करना ध्यान होता है। मन, वचन, काय की प्रवृत्तियों का निरोध तो आध्यात्मिक ध्यान है। एकाग्रता अशुद्ध है तो अशुद्ध विषय से पाप का बन्ध हो सकता है। निर्मल विषय में एकाग्रता है तो वह धर्म लाभ वाला कार्य हो सकता है। शरीर में जो स्थान शीर्ष का है, वृक्ष में जो स्थान मूल का है, वही स्थान सर्व साधु धर्म में ध्यान का होता है।
जैन वांग्मय में ध्यान के चार प्रकार बताए गए हैं : आर्त्त ध्यान, रौद्र ध्यान, धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान। आर्त्त-रौद्र अशुभ ध्यान है तो धर्म और शुक्ल ध्यान शुभ ध्यान हो जाते हैं। हमारा मन गतिशील है, इसमें अनेक विचार आते रहते हैं। मन में दो कमियां है- चंचलता और मलिनता। वैसे मन विकास का द्योतक है। संज्ञी पंचेन्द्रिय के ही मन होता है। जिसके मन है वो ही धर्म की ज्यादा और ऊंची साधना कर सकता है तो पाप का बंध भी ज्यादा मन वाला प्राणी ही कर सकता है। ध्यान की अनेक पद्धतियां चलती हैं, हमारे यहां प्रेक्षाध्यान पद्धति चलती है। प्रेक्षा अर्थात सिर्फ देखना, गहराई से, राग-द्वेष मुक्त हो देखना। दीर्घ श्वास का प्रयोग कर, विचारों को कम करने का प्रयास करें। हर क्रिया के साथ ध्यान को जोड़ा जा सकता है। भाव क्रिया रखें, समता भाव रखें। कषायमुक्त रहते हुए अनासक्ति का भाव रखें। धर्म और ध्यान को हम जीवन शैली का अंग बनाने का प्रयास करें।