कर्मों के वेदन और निर्जरण से ही मिल सकता है छुटकारा : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

कर्मों के वेदन और निर्जरण से ही मिल सकता है छुटकारा : आचार्यश्री महाश्रमण

जिन शासन प्रभावक आचार्यश्री महाश्रमणजी ने मंगल देशना प्रदान कराते हुए फरमाया कि संसार को अर्णव कहा गया है। संसार सागर है, भवसागर है। इसमें जीव जन्म-मृत्यु करते रहते हैं, जब तक मोक्ष नहीं हो जाता। प्रश्न है कि इस संसार अर्णव को कैसे पार किया जाए ? संसार सागर को पार करने के लिए निश्छिद्र नौका हो तो पार पहुंचा जा सकता है। वह नौका ये शरीर है। इस शरीर को धर्म संयमी शरीर बना ले आत्मा संयम तप को धारण कर ले। संवर और निर्जरा के द्वारा भव सागर को तरा जा सकता है। शरीर अनुकूल रहे तो ही साधना हो सकती है। शास्त्रकार ने कहा है - जब तक बुढ़ापा पीड़ित न करे, व्याधि-बीमारी न बढ़े और इन्द्रियां बलवान और सक्षम रहे तो शरीर सक्षम रह सकता है तब तक धर्म की साधना हो सकती है।
जीव को किए हुए कर्म भोगने होते हैं। किस-किस गति में जा सकता है। कर्मों को वेदने से या तपस्या से निर्जरण करने से ही छुटकारा हो सकता है। संत लोग जगह-जगह जाते हैं, तो लोगों का कल्याण हो सकता है, त्याग-संयम करने की प्रेरणा मिलती है। साधना करते-करते हमारी मोक्ष से निकटता हो सकती है। शरीर से साधना कर भवसागर से तरना है। सन्यासी तो कोई भाग्यशाली ही बन सकता है, उसे भी अंतिम सांस तक निभा देना और विशेष बात है। गृहस्थ जीवन में भी जितना तप-संयम का आराधन हो सके करने का प्रयास करना चाहिये। जीवन में अहिंसा, ईमानदारी, संयम और अनासक्ति रहे। गृहस्थ भी भव-सागर तरने की दिशा में आगे बढ़ सकता है। पूज्यवर के स्वागत में भारतीय जैन संगठना बुलढ़ाणा के अध्यक्ष अमित बेंगानी, निकिता कोठारी एवं अरुणा कोठारी ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। स्थानीय जैन महिला मंडल गीत, बेंगानी परिवार की बहु-बेटियों ने गीत का संगान किया। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।