धर्म है उत्कृष्ट मंगल

स्वाध्याय

धर्म है उत्कृष्ट मंगल

कषाय-प्रयोग से होने वाली हानियों का उल्लेख दशवैकालिक सूत्र में मिलता है-
कोहो पीइं पणासेइ– क्राेध प्रीति का नाश करता है।
माणो विणयनासणो– अभिमान विनय का नाश करता है।
माया मित्ताणि नासेइ– माया मित्रता का विनाश करती है।
लोहो सब्य विणासणो– लोभ सब का विनाश करता है।
इन चारों को जीतने के लिए एक-एक उपाय भी निर्दिष्ट किया गया है-
उवसमेण हणे कोहं– उपशम के द्वारा क्रोध का हनन करो।
माणं मद्दवया जिणे– मुदुता के द्वारा अभिमान को जीतो।
मायं चज्जवभावेण– ऋजुता के द्वारा माया को जीतो।
लोहं संतोसओ जिणे– सन्तोष के द्वारा लोभ को जीतो।
प्रतिपक्ष भावना दुर्वृत्तियों को जीतने का उपाय है। क्रोध की वृत्ति को नियन्त्रित करने के लिए उपशम का अभ्यास किया जाए, उपशम को अनुप्रेक्षा (भावना, अनुचिन्तन) की जाए। उत्कण्ठापूर्वक उपशम की साधना क्रोधमुक्ति का उपाय है। इसी प्रकार अभिमान, माया और लोभ को वृत्ति का शोधन करने के लिए क्रमशः मृदुता, ऋजुता और सन्तोष (अनासक्ति) की अनुप्रेक्षा एवं अभ्यास अपेक्षित है।
योग-ग्रतिसंलीनता
१०. मनोयोग-प्रतिसंलीनता– अकुशल मन का निरोध, कुशल मन की उदीरणा और मन को एकाग्र करना, अमन की स्थिति को प्राप्त होना।
११. वचनयोग-प्रतिसंलीनता– अकुशल वचन का निरोध, कुशल वचन की उदीरणा और मौन का अभ्यास।
१२. कायप्रतिसंलीनता– कायगुप्ति का अभ्यास करना, हाथ, पैर आदि शरीर के अवयवों को संकुचित कर रखना, शारीरिक स्थिरता का प्रयोग करना।
विविक्त शयनासन-सेवन
१३. विविक्त शयनासन-सेवन– एकान्त स्थान– जहां पशु, स्त्री (विपरीतलिंगी) आदि न हों, वहां रहना।
यह एकान्तवास की साधना का प्रयोग है। साधना की पूर्ण परिपक्वता के बाद बाहर के निमित्तों का कोई प्रभाव नहीं होता पर पूर्ण परिपक्वता के अभाव में निमित्तों से बचना सुरक्षा कवच की तरह आवश्यक है।
प्रतिसंलीनता अंतर्मुखी बनने का मार्ग है, साधना को विशिष्ट बनाने का प्रयोग है। यह बाह्यतप का एक प्रकार है पर आभ्यन्तर तप से भी इसकी बहुत निकटता प्रतीत होती है।

विशुद्धि का प्रयोग
साधक वह होता है जो अपना शोधन करता रहता है। जहां शोधन की अपेक्षा ही नहीं रहती, पूर्ण विशुद्धि की स्थिति प्राप्त हो जाती है वह 'सिद्ध' अवस्था है। साधना अथवा विशुद्धि की तरतमता के आधार पर चौदह भूमिकाएं आगम में निर्दिष्ट हैं। छठी भूमिका (प्रमत्त संयत गुणस्थान) तक प्रमाद, त्रुटि अथवा अपराध हो सकता है। उसके विशोधन का प्रयोग है प्रायश्चित्त।
प्रायश्चित्त एक प्रकार की चिकित्सा है। चिकित्सा रोगी को कष्ट देने के लिए नहीं, किन्तु रोग निवारण के लिए की जाती है। इसी प्रकार प्रायश्चित्त भी राग, द्वेष अथवा तज्जनित अपराधों के संशोधन के लिए किया जाता है। दोष, दोषसेवन कर्त्ता, प्रायश्चित्त और प्रायश्चित्त प्रदाता की क्रमशः रोग, रोगी, औषध और वैद्य से तुलना की जा सकती है। रोग और रोगी दोनों को दृष्टिगत रखकर औषध का निर्णय करने वाला वैद्य कुशल वैद्य होता है। प्रायश्चित्त देने वाले के लिए भी दोष और दोषी दोनों को ध्यान में रखकर प्रायश्चित्त का निर्धारण करना अपेक्षित होता है।