आचार्यश्री तुलसी ने इस धर्मसंघ का मानो कायाकल्प कर दिखाया
तेरापंथ धर्मसंघ एक प्रगतिशील और अनुशासित धर्मसंघ है। इस संघ के आदिकर्ता आचार्य भिक्षु हुए। जैन धर्म अनादिकाल से चल रहा है परन्तु तेरापंथ धर्मसंघ को जैन धर्म का नवीन संस्करण कहा जा सकता है। आचार्य भिक्षु ने देखा कि साधुओं में शिथिलाचार बढ़ रहा है, साधु-संत अपने-अपने चेले बनाने में लगे हुए हैं। साधुत्व की योग्यता के अभाव में बने हुए चेले से संख्या बल भले बढ़ जाये परंतु धर्म प्रभावना नहीं हो सकती। आचार्य भिक्षु ने धर्मक्रांति की और एक गुरु-एक विधान का निरूपण कर तेरापंथ धर्मसंघ की स्थापना की। उस समय तेरह संत थे परंतु साध्वियां नहीं थी। लोग अक्सर मजाक किया करते थे कि भीखण जी! आपका लड्डु खांडा है? परंतु आचार्य भिक्षु उनकी मजाक से आहत नहीं हुए और धीरे-धीरे साध्वियां भी दीक्षित होने लगी। लोगों का स्वामीजी के प्रति आकर्षण भी बढ़ने लगा, श्रद्धालुओं की संख्या देखकर आचार्य भिक्षु ने साहित्य की भी रचना की। उनके मौलिक और उदात्त विचारों का ही प्रभाव था कि चन्द समय में मारवाड़, मेवाड़ में ही नहीं अन्य अनेक प्रांतों में तेरापंथ की महिला फैल गई। समय-समय पर युगानुकूल आचार्य आते रहे और संघ सुरक्षा के साथ प्रत्येक आचार्य ने अपनी सूझ बूझ से संघ की खूब श्रीवृद्धि की।
आचार्य श्री तुलसी इस संघ के नवमाचार्य थे। मात्र बाईस वर्ष की अवस्था में उन्हें अष्टामाचार्य कालूगणी अपना उत्तराधिकारी बनाकर देवलोक पधार गये। आचार्य श्री तुलसी ने इस धर्मसंघ का मानो कायाकल्प कर दिखाया। उन्होंने अपने दूरदर्शी चिन्तन से धर्मसंघ को अनेक नये-नये आयाम देकर संघ को प्राणवान बना दिया । आज यह धर्मसंघ जो विश्व विख्यात हुआ है, देश-विदेश के दिग्गज लोगों के आस्था का आधार बना है, उसमें आचार्यश्री तुलसी का नाम गौरव से स्मरण किया जाता है। आगम साहित्य, अणुव्रत साहित्य, प्रेक्षा साहित्य, कथा साहित्य, तत्वज्ञान साहित्य, इतिहास साहित्य, गद्य-पद्यमय साहित्य, मारवाड़ी, हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत अंग्रेजी में निबद्ध, प्रांजल भाषा में लिखे गये साहित्य को पढ़कर जैन-अजैन सभी अपनी जिज्ञासाओं के समाधान के साथ दृढ़ आस्था-शील बनते नजर आते हैं।
आचार्यश्री तुलसी ने अपने सुदुपदेशों से रूढ़िग्रस्त लोगों को भी सही मार्गदर्शन देकर उन्हें अहिंसा, संयम, तप के मार्ग पर गतिशील बनाया। घूंघट प्रथा, मृत्युभोज, छुआछूत जैसी अनेक कुप्रथाओं को मानो विराम ही लगा दिया। व्यक्ति-व्यक्ति के निर्माण के लिए कई संगठनों की शुरुआत हुई। युवक परिषद, महिला मंडल, किशोर मडंल, कन्या मंडल, ज्ञानशाला जैसे उपक्रमों से जुड़कर प्रत्येक व्यक्ति माला के रुप में शामिल होने लगा। उनकी हर दृष्टि से सुरक्षा होने लगी, आज हमारे संघ में अनेकों वक्ता, लेखक, गायक, बुद्धिजीवी देखने-सुनने को मिलते हैं, यह सब गुरुदेव के किये गये सत्पुरुषार्थ का फल कहा जा सकता है। तेरापंथ समाज में महिलाओं का जो विकास हुआ है, वह अन्य लोगों के लिए प्रेरणा है। जो राजस्थानी महिलाएं घूंघट में रहती और अनपढ़ थी उनका जो आज हम वर्चस्व देखते और सुनते हैं तो हमें सात्विक गौरव की अनुभूति होती है। तेरापंथ की साध्वियां भी आचार्य श्री तुलसी से पूर्व चिन्तक, लेखक और वक्ता रूप में नहीं सुनी गयी थी, आज साध्वियां अपने कुशल प्रवचन, प्रांजल लेखन, सक्षम नेतृत्व से सबको मोहित कर लेती हैं।
आचार्यश्री तुलसी को देखें तो उन्होंने इससे बढ़कर अणुव्रत आन्दोलन का सूत्रपात कर अन्य मतावलंबियों को भी अमन-चैन में रहने की कला सिखाई। अणुव्रत आन्दोलन से अनेक धर्मगुरु, राजनेता और उद्योगपति भी आपके भक्त बन गए थे। आचार्यश्री तुलसी केवल तेरापंथ और जैन धर्म के विकास से ऊपर उठकर मानवीय गुणों की सुरक्षा में लगे रहते इसीलिए वे राष्ट्रसंत ही नहीं विश्वसंत कहलाये। हम उनके महाप्रयाण दिवस पर मंगल कामना करते हैं कि उनके द्वारा चलाये गये हर आयाम निरंतर प्रवर्धमान रहें जिससे जन-जन के दिल-दिमाग में शांति और आनंद का वातावरण बना रहे और आचार्यश्री तुलसी का नाम भी अमर रहे।