गार्हस्थ्य में रहते हुए भी करें अमोह की साधना का विकास : आचार्यश्री महाश्रमण
तेरापंथ के महासूर्य आचार्यश्री महाश्रमणजी आज अपनी धवल सेना के साथ भुसावल पधारे। मंगल प्रेरणा पाथेय प्रदान कराते हुए युवामनीषी ने फरमाया कि आदमी जीवन जीता है, जीवन जीने के लिए भोजन, पानी, श्वास, हवा, कपड़े, मकान, शिक्षा, चिकित्सा आदि अनेक चीजों की अपेक्षा हो सकती है। आदमी अनेकों के साथ पारिवारिक, सामाजिक और धर्म संघीय संबंध रखता है।
जहां इतना क्रम चलता है, वहां पाप कर्म का बंध न हो या कम हो इसका एक महत्वपूर्ण उपाय है- अनासक्त रहना। जैसे पद्म पत्र जल में रहकर जल से निर्लिप्त रहता है वैसे परिवार-समाज में रहते हुए भी आदमी अनासक्ति का अभ्यास रखे तो पाप कर्मो के बंध से संभवत: काफी बचाव हो जाता है।
शास्त्र में मिट्टी के दो गोले एक सूखी मिट्टी का, एक आर्द्र मिट्टी का गोला का उदाहरण दिया गया। गीली मिट्टी दीवार के चिपक जाती है और सूखी मिट्टी नीचे गिर जाती है। आसक्ति इस आर्द्र मिट्टी के समान है। सूखी मिट्टी अनासक्ति के समान है। जहां आसक्ति और आकर्षण है वहां बंधन है। साधु अनासक्त भाव से भोजन करता है, तो साधु के पाप कर्म का बंध नहीं होता, निर्जरा होती है। जहां पदार्थ के साथ लगाव हो जाता है वहां पाप कर्म का बंध हो सकता है। गृहस्थ भी कपड़ों में आसक्ति रखता है तो वहां भी कर्म का बंध हो सकता है। यह आसक्ति जहां पदार्थों, व्यक्तियों या गांव के साथ हो जाए तो पाप कर्म का बंध हो सकता है। साधुओं के लिए सामान्य परंपरा यह है-
साधु तो रमता भला, दाग न लागे कोय।
पाणी तो बहता भला, पड्या गंदिला होय।।
जैन आगम में जो अनासक्ति का संदेश दिया गया है, वह साधुओं के लिए तो महत्वपूर्ण है ही, गृहस्थों के लिए भी एक दिशा सूचक है कि गार्हस्थ्य में रहते हुए भी कैसे अनासक्ति का जीवन जीया जा सके, कैसे मोह को हल्का रखा जा सके, अमोह की चेतना का विकास किया जा सके। मोह एक ऐसा तत्व है जो आदमी से अपराध करा सकता है। हिंसा, झूठ, चोरी तो मानो शाखाएं हैं मूल तो लोभ, मोह, आसक्ति है। क्षुधा को कुतिया के समान माना गया है, उसको टुकड़े डालने होते हैं ताकि यह शरीर काम कर सके। जीभ को तो एक बार स्वाद आता है पर भुगतना शरीर को पड़ता है। रुचि और विवेक पर हम ध्यान दें। भोजन रुचि, स्वास्थ्य और साधना तीनों के अनुकूल हो, आसक्ति से न खाएं। शरीर से साधना हो सके इसलिए भोजन करें। अध्यात्म की साधना में राग-द्वेष मुक्त वीतरागता की साधना और अनासक्ति की साधना का बड़ा महत्व होता है। साधु तो अनासक्त रहे, गृहस्थ भी भौतिक दुनिया में रहते हुए भी अनासक्ति का प्रयास करें।
साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभाजी ने कहा कि मनुष्य कुछ पाना चाहता है और उसको पाने के लिए दौड़ लगाता रहता है। स्वास्थ्य, संपत्ति, सत्ता और सरस्वती को पाने के लिए व्यक्ति दौड़ धूप कर रहा है। उसका कारण है आसक्ति। ज्ञान आवश्यक है, ज्ञान के बिना विकास नहीं हो पाता है पर हमारा ध्यान हमारे केन्द्रिय तत्त्व आत्मा पर हो। हमें आत्मा को पवित्र निर्मल बनाना है, उसका उपाय है- ऋजुता। व्यक्ति के मन, वचन एवं काय में ऋजुता का भाव होना चाहिए। धर्म का निवास वहीं होता है जहां व्यक्ति का हृदय शुद्ध होता है, ऋजु होता है। भुसावल से संबद्ध साध्वी सन्मतिप्रभाजी एवं मुनि सिद्धकुमारजी ने गुरु चरणों में अपनी भावना अभिव्यक्त की। पूज्यप्रवर के स्वागत में महासभा अध्यक्ष मनसुख सेठिया, स्थानीय सभा की ओर से रवीन्द्र निमाणी, महिला मंडल से मंजुश्री छाजेड़, सोमेश सांखला, अतुल तातेड, दिव्या निमाणी ने अपने हृदयोद्गार व्यक्त किए।महिला मंडल ने गीत का संगान किया। ज्ञानशाला की सुन्दर प्रस्तुति हुई। कन्या मंडल व किशोर मंडल की भुसावल के इतिहास पर सुन्दर प्रस्तुति हुई। तेरापंथ की बेटियों एवं तेरापंथ समाज ने भी अपनी प्रस्तुति दी। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।